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(गत्स्य ज्ञानकोप (अ) ३५ अगत्स्य और इसकी छाया घनी होती है इसलिये लोग ! की वही स्थिति देख ये बड़े खिन्न हुए । इसी से पान की बाड़ी में छाया के लिये लगाते हैं। अवसर पर राजा त्रसदस्युने इनसे निवेदन किया कसी किसी बाग में यह फूल की शोभा के लिये कि इल्वल श्रासुर इस समय बड़ा ही धनी है। लगाया जाता है। हमारी कामना वहां पूरी हो सकेगी। अतः हमें वहीं (आधार ग्रंथ-पदे, वनस्पति-गुणादर्श) चलना चाहिये। अगस्त्य-पौराणिक मतानुसार स्वायंभू मन्व तीनों राजाओं को साथ लेकर ये इल्वलके र के ब्रह्ममानस पुत्र पुलस्त्य ऋषि थे । उनको नगर में पहुँचे। उससे युद्ध किया और उस पर दम प्रजापति की कन्या हविर्भवा से दो पुत्र विजय भी पाई। उन्होंने उससे असंख्य धन लिया। ए । उन दोनों पुत्रों में ये ज्येष्ठ पुत्रथे और इनके उसमें से कुछ भाग उन्होंने राजाओं को भी दिया सरे सहोदर का नाम विश्वा ऋषि था। (वैदिक | और उन्हें वहीं से विदा कर स्वयं श्राश्रम को लौट पौरा पुलस्त्य शब्द में देखिये।) आये । सारा धन उन्होंने लोपामुद्रा को दे उसे पहले बहुत से असुर समुद्र में छिपकर सन्तुष्ट किया। ( देखिये इल्वल )। कालान्तर में हा करते थे और इन्द्रादि देवताया. ऋषियों लोपा-मुद्रा अगस्त्य द्वारा गर्भवती हुई। क्रमशः था अन्यान्य प्रजाओं को पीड़ित किया करते थे। उनके दो पुत्र हुएः-प्रथम दृढ़स्यु और द्वितीय न्द्र ने यह विचार कर, कि समुद्र के सूखने पर दृढ़ास्य । इध्मवाह के नाम से दृढ़स्यु अत्यन्त नका नाश हो जायगा और सब सुखी होगे, अग्नि | प्रसिद्ध हुए। गौर वायु को समुद्र सुखाने की आशा दी इस जिस समय अगस्त्य स्त्रीपुत्रों सहित वर्णापाशाका अनादर होने पर इन्द्र ने क्रोधित होकर श्चम धर्म चला रहे थे उस समय कालकेय नामक न दोनों को श्राप दिया कि वे दोनों मृत्यु लोक असुने जीवों को अत्यन्त कष्ट देना प्रारम्भ । जन्म लें। तदनन्तर वैवस्वत मनवन्तर के अनु किया। सम्पूर्ण बड़े बड़े ऋषियों की प्रार्थना से गार उन दोनों का जन्म इस संसार में हुआ। मित्र उन्होंने समुद्र का शोषण कर संसार का कष्ट दूर रुण नाम के एक ऋषि थे । उन्होंने अपना वीर्य किया। इनकी इस कृपा से इन्द्र भी पूर्णतः सन्तुष्ट क घड़े में रख दिया था और उसमें से अगस्त्य हुश्रा। (देखिये कालकेय) पौर वशिष्ठ ऋषि उत्पन्न हुए। इनके नाम मैत्रा अगस्त्य ऋषि कुशल तत्व-वेत्ता और महान् [रुण और कुम्भयोनि भी है। परोपकारी थे। धनुर्वेद में भी आपकी गणना (मत्स्य पुराण-अध्याय २०१) उच्च कोटि में की गई है। आपने, विन्ध्यपर्वत अगस्त्य ऋषि बड़े तपस्वी तथा विरक्त थे द्वारा होने वाले प्राणिमात्र के कष्ट को दूर करने स कारण विवाह नहीं करतेथे। एरन्तु पितरों के लिये, देवताओं की प्रार्थना से द्रवीभूत हो, की श्राज्ञा से विवश हो इन्होंने विदर्भ नरेश की काशीवास छोड़ना भी सहर्ष स्वीकार किया कन्या लोपामुद्रा को स्त्री-रूपमै ग्रहण किया। लोपा [देखिये विन्ध्य ] | वनवास के समय जब श्रीराम बुद्रा देखिये)। जब ऋपिको राजकन्या से पुत्र चन्द्रजा दण्डक चन्द्रजी दण्डकारण्य पहुँचे तब आपके दर्शन और पप्ति की इच्छा हुई तो उनका विचार हुश्रा कि प्रसाद से अपने को कृतार्थ कर आगे अग्रसर बेना ऐश्वर्य के पुत्रप्राप्ति ठीक नहीं । अतः द्रव्य हुए थे। गचना के लिये अगस्त्य राजा श्रतर्वाके पास अगस्त्य-(शुद्र वैय्याकरण)-लगभग १००० गये। (श्र तर्वा देखिये )। [महाभारत वनपर्व | वर्ष पूर्व ये तामिल देशमै शूद्रजातिमें उत्पन्न हुए थे। अध्याय ७.६८]. येकवि भी थे। कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह श्रुता राजा ने अपने को द्रव्य देने में अस- भी पुराण-प्रसिद्ध अगस्त्य मुनि के ही अवतार थे। पर्थ पाकर ऋषि से प्रार्थना की कि वे राजा नद-तामिल भाषाका व्याकरण पहले पहल इन्हो ही ने पञ्च के नगर को जाय। निराश होकर इन्होंने रचा। इसी कारण इस व्याकरण का नाम 'अगस्त्यराजा श्र तर्वा को भी अपने साथ चलने पर विवश | व्याकरण' प्रसिद्ध हुआ। इसमें एलकनम् ५ प्रकार केया। दोनों ही साथ साथ राजा ब्रदनञ्च के हैं। इनके नाम ये हैं:-एलटू, चोलू, परलू आप्प यहाँ गये। (देखिये बदनञ्च )। यहां पर भी इन | और अलकारु । न्याय, वद्यक, रसायन और धर्म की मनोकामना सिद्ध न हुई।अतः वे दोनौ राजाओं शास्त्र, पूजा-पद्धति श्रादि पर भी इनके कई ग्रन्थ का साथ लिये हुए राजा त्रसदस्य के राज्य है। इनका उपयुक्त काल हमने डाक्टर 'काल्डवेल में पधारे (देखिये त्रसदस्यु)। वहां पर भी धन के मतानुसार दिया है। (कविचरित्र)