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और दुसरे कारणों से पृथ्वी में समा गये। उनके ऊपर जमीन की ऊपरी तहों का दबाव पड़कर पत्थरों और कोयलों पर छाप पड गयी। कई एक स्वयं पत्थरों के समान हो गये। इन सबको प्रस्तरी भूत नाम दिया जाता है। ऐसी प्रस्तरी भूत वनस्पतियाँ बहुत सी पायी गई है। इनसे पूर्वकालकी वनस्पतियों का भेद, तथा इस वक्त उनका अस्तित्व है अथवा नहीं, और अगर है तो वे वैसा ही है अथवा उसमें कुछ भिन्नता आ गई हैं, इत्यादी विषयों का ज्ञान होता है। ये प्रस्तरी भूत वनस्पतियाँ पृथ्वी के आवरण के कौन से तहमें पाई जाती है इससे भूस्तर-शास्त्रज्ञ इस बात का अनुमान निकाल सकते हैं कि वे किस काल की हैं। इससे यह पता लगता है कि प्रथम कौन सी वनस्पतियाँ थी,फिर कौनसी हुई और क्या रद्दोबदल हुवा या कैसे हुवा, इत्यादि इत्यादि। अपुष्य वर्ग की ऐसी ही प्रस्तरीभूत वनस्पतियाँ बहुतायत से उपलब्ध हैं। परन्तु स्थाणवर्ग और वाहिनीमय अपुष्पवर्ग के बीच का अभी तक निश्च्य नही हुआ है। वाहिनीमय अपुष्पवर्ग में तो बहुतसी नवीन वनस्पतियों का वर्गी करण बराबर किया जा सकता है। नेचे तथा अनावृत बीजवर्ग (Gymnospermia) अपुष्प वर्ग के भाग हैं। इनके बीचकी कुछ वनस्पतियों के मिलजाने से अपुष्प से सपुष्प पर्यन्त का सिलसिला बैठाया जा सकता है। स्थाणवर्ग-इस वर्ग की वनस्पतियाँ अत्यन्त कोमल होने के कारण वे अश्मीभूत स्थिति में जाने में असमर्थ हैं। इस कारण उनमें की कुछ जातियों का अवशेष नहीं मिलता परन्तु इससे अनुमान नही किया जा सकता है कि उन वनस्पतियों का उस समय अस्तित्व ही नहीं था। बिलकुल नीचे की सिलुरियन तह में कुछ पाणकेश पाये जाते हैं। परन्तु ये कौनसे प्रकार के हैं,इन का औरों से क्या सम्बन्ध है,इत्यादि पहिचाना नही जाता। सायफोनेल हरी वनस्पतियों का एक भेद है। उसमें की कुछ वनस्पतियाँ पहिलेसे ही मिलती हैं। उसके बाद के समय में लाल पाणकेशमें की मिलती है। एकपेशीमय वनस्पति में द्वरवी के ऊपर बालू के कण की त्वचा रहती है इस कारण से वे उत्तम होते हैं। उसमें की कुछ तो इस वक्त भी उपलब्ध हैं। इसके अनन्तर कांडशरीरि का बहुतायत से मिलती है। सूच्म जंत वनस्पतियाँ बहुधा पूर्व काल से ही कुजनेवाले सेन्द्रिय पदार्थ पर रहती है। कर्वजनक (Carboni ferous) काल से तो दूसरे वनस्पतियों के अविशेष में रहते हुवे मिलती हैं। अत्रि भाजितालिंब तथा विभाजितालिं व वनस्प तियों में की कुछ भी उस समय थीं,किन्तु शिला वल्कका अवशेष भी इसी समय मिलता है। शैवाल वर्ग-इसमें के अवशेष बहुत कम मिलते हैं। जो कुछ मिलते हैं,वे सब कर्बजनिक काल से आगे के हैं। वाहिनीमय अपुष्प व्रर्ग-इनमें का अवशेष बिलकुल आरम्भ काल से मिलता है। किन्तु कर्वजन काल में सब पृथ्वी पर मानो इन्ही का साम्राज्य था उस वक्त जितनी वनस्पतियाँ अस्तित्व में थीं उनमें इनकी संस्था सबसे अधिक थी तथा इनका पूर्ण विकास भी उसी समय हुआ थ। जैसे अनाव्रूत तथा प्रच्छन्न बीजवर्ग (Gymnosperms and Angiosperms) अस्तित्व में आने लगे वैसे २ इनका महत्व कम २ होने लगा। (१) अश्व पुच्छ-इस समय इनकी एक ही जाती है परन्तु उस समय इनकी अनेक जातियाँ थी। प्राणि पूर्व कालसे ही ये मिलती हैं। इनकी रचना साधारण तथा आज कल के सहश ही थी। परन्तु उसका आकार बहुत बडा था। कितनि तो १०० फीट तक लंबी होती थी। कांडाग्र पर लम्भी १ गोल शाखायें उत्पन्न होती हैं तथा तनेके ऊपर एक त्वचा रहती है और उसी से उपवाढ होती थी । पत्ते लम्बे होते थे। तुर्रे की रचना कुछ कुछ आजकल के सहश ही होती थी किन्तु अधिकों में बहुत कठिन होती थी और हर दो पत्तों में एक वल्कपर्ण (Scale) होता था। कमसे कम कुछ में तो जन नपेशिग्राँ दो ही प्रकार की होती थी। (२)मुद्र्लक-इनमें के बहुत से भेद प्राणी पूर्व काल से थे। इनमें शाखायें न फूट कर उनके तने खम्भों के समान ऊँचे तथा मोटे होते थे। ये वनस्पतियाँ कर्वजनक समय में होती थीं। ईनके पत्ते लम्बे होते थे और उनके भड जाने पर तने पर उनके निशान पडे रहते थे। दूसरे भेद द्विपाद शाखयें की फूटती थी। उनकी ऊँचाई १०० फीट तक होती थीं। इनमें दो प्रकार की जननपेशियाँ होती थीं। इनसे सिवाय मुदूगलक और अश्वपुच्छ के बीज की एक जाति का पता लगता है। कुछ्में बीज सहश एक अवयव मिलता है।