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इस जाति की बनस्पति से एक कड़ा किन्तु आर्द्र गोंद के समान पदार्थ तैय्यार होता है और इसका दवाइयों में उपयोग होता है। इस से अगर नाम का एक पदार्थ बनाने हैं। वह खाने तथा अन्य अनेक कार्य में आता है।

     ( १२ ) अति भाजितालिंब - यह अलिंब वगों में का एक भेद है। प्राणिज या वनस्पतियॉं बहुत छोटी होती है और पगेपजीवो होती हैं। इनका स्थाणु बहुत से गुथे हुए तन्तुओं से तय्यार रहता है। इसके बीच में पेशीत्वचा आकर उसके अलग अलग भाग नहीं होते। केवल उत्पादक इन्द्रियों के उत्पन्न होने के समय ही भाग होते है, और अनकी वे इन्द्रियॉं बनती हैं। जीवद्रव्य सर्वत्र रहता है। उसमें अतिशय छोटे बहुत से केन्द्र होते हैं। किन्तु रंजितद्रव्य शरीर तो कहीं देख नहीं पड़ते। इसलिए ये वनस्पतियां रंगहीन होती हैं।
    इसका अयोगसांभव उत्पादन जननपेशी से होता है। प्रथम एक पेशी में का सम्पूर्ण जीवद्रव्य विभाजित किया जाता है और उनसे बहुत सी जननपेशियों में एक या दो केश सद्दश तन्तु होते हैं इस कारण वे तैर सकते हैं। जो जमीन पर हवा में रहती है उसमें एक पेशी कवच होता है। हवा से  उड़कर इष्ट स्थल पर गिरते ही उनसे नयी वनस्पतियॉं तैयार होती हैं। योगसंभव उत्पादन दो रीतियॉं होती हैं। कुछ जातियो में रेतकरंडक से जाकर मिलती है। इस नलो द्वारा रेत में का द्रव्य रज से मिलता है और उससे एक जननपेशी तैयार होती है। केवल एक ही वनस्पति में रेत स्वतन्त्ररूप से बाहर गिरता है। दूसरी रीति है दो समान तत्वों का सँयोग और उससे जननपेशी की उत्पत्ती।
    गोभी,नवलकोल,आलू इत्यादि को भी रोग होता है। वह इसी जाति की सब वनस्पतियों में होता है। इन के स्थाणु के तन्तु पत्तों के त्वचारंध्र से भीतर जाते हैं और अन्दर अपने की तरफ बढ़ते हैं और फिर उनपर जननपेशी निकलती है। ये जननपेशियां बहुत शीघ्रता से बढ़ती हैं और बहुतायत से होती है। वे वायु के साथ उड़ जाती है। इसी लिये रोग फैलता है।
      गोवर,वासी अथवा अन्य खुले रखे वासी