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१०७० ई० में तुकॉंने इस पर अधिकार कर लिया था। २३वीं शताब्दो से यह मुसलमानों के ही शासन में रहा। बहुत काल तक यह एशिया माइनर का प्रधान नगर समक्ता जाता था। ग्रीकोरोमन काल के अनेक शिलालेख अब तक पाये जाते हैं।

   (३) युफ्रेटस नदी के किनारे पर बसा हुआ एक नगर। असूरियन लोगों में इसका उल्लेख, 'तिलबार सिप' के नाम से आया है तथा वर्तमान समय में यह विरेज़िक के नाम से वह प्रसिद्ध है।
   (४)विथिनिया का पुराना नगर 'मिरलिया' का यही नाम रखा था।
   (५)स्टिफेनस तथा सिन्नी द्वारा उल्लिखित एक नगर।
   (६)राघी के समीप पर्थिया का एक ग्रीक नगर। 
   अपीनस - यह एक नाक का रोग है। इसे अंग्रेजी में ओज़ीना (Ozaena) कहते हैं। खास नाक में अथवा उसके समीप तनिक ऊपर की दुर्गन्धयुक्त निरन्तर स्त्राव बहो करता है। इसे नाक का स्वतन्त्र रोग न कह कर यदि नाक के विकार के कारण अथवा नाक के भीतरी श्र्लेष्मत्वचामें के क्षत के कारण यह रोग उत्पन्न हो जाता है। कुछ लोग इसे 'पीनस' भी कहते हैं यद्यपि पीनस का अर्थ जुकाम भी हिता है। बैद्यक शास्त्र में इसका बड़े ब्योरे से वर्णन मिलता है।
   कारण - इस रोग के अनेक कारण हो सकते हैं। उपदंश गण्डमाला , विकारयुक्त क्षत , नाक की भीतरी हड्डी में कीड़ा लगना या सड़ना , नाक में कोई वाह्य विकार युक्त पदार्थका प्र्वेश कर जाना अथवा अटके रहना इत्यादि ही इसके मुख्य कारण होते हैं। कभी २ उपरोक्त किसी कारण के बिना इस रोग का प्रादुर्भाव हो जाता है और इसका ठीक ठीक कारण निश्चय करना कठिन हो जाता है। ऐसी अवस्था में इसे स्वतंत्र रोग मान लेते हैं। कुछ का मत है कि पेट में पारा अधिक हो जाता है।
   लक्षण - नाक के बिल्कुल ऊपरी भाग में जो क्षत होता है उसी का इस रोग से सम्बन्ध हो सकता है। माला वाले मनुष्य नाक के किसी एक हो छिद्र में क्षत होकर उसमें से धीरे धीरे दुर्गन्धयुक्त स्त्राव बहने लगता है , किन्तु उपदंशके रोगी के दोनों नासिक-पुटिकाओं में से क्षत होकर स्त्राव बहता है। उपदंश वाले रोगी की अवस्था अन्य कारणों से भी ठहराई जा सकती है। छोटे बच्चों के रोगनिदान विशेष कठिनता का अनुभव होता है।
   स्त्राव का प्रमाण हरेक की प्रकृति के अनुसार अलग अलग हिता है। प्राकृतिक हरे-फरे से भी इसपर प्रभाव पड़ता है। सर्दी , अमातिरेक तथा स्त्रियों की रजस्वलावस्था में यह बढ़ जाता है। स्त्राव भी भिन्न भिन्न रोगी का भिन्न भिन्न अवस्था में भिन्न भिन्न प्रकार होता हौ। यह स्त्राव पतला अथवा गाढ़ा , मवाद (पीप) के सदृश अथवा रेठा के समान ,रड्डहीन अथवा पीला , हरा अथवा लाल भी होता है। रक्त के विन्दु भी कभी कभी देख पड़ते हैं। कभी कभी जमा हुआ पदार्थ नाक से निकलने लगता है। इसमें अत्यन्त दुर्गन्धि होती है। इस विकार से नाक की हड्डी सड़ तक जाती है और जिससे मनुष्य में अत्यन्त कुरूपता आ जाती है। उपदंश के कारण से जिनको यह रोग होता है उनको नाक सड़कर कुरूप होने का अधिक भय रहता है।
   रोग-परीक्षा - दॉंतों के विकार के कारण , मुख अथवा गले के क्षत के कारण , नाक में कोई वाह्य पदार्थ के अटक कर रह जाने के कारण या प्रकृति किया के बिगड़ जाने से स्वास में दुर्गन्धि आने लगती है , और ऐसी ही दुर्गन्धिमुक्त अवास अपीनस के रोगियों भी होती है। अतः पहले रोग का ठोक ठोक कारण तथा परीक्षा कर लेना आवश्यक है।
   चिकित्सा - इस रोग में औषधि का लगाने (External) तथा खाने (Internal) दोनों ही प्रकार का प्रयोग करना चाहिये। सबसे पहले कारण निश्चय करना आवश्यक है। तदनन्तर इस कारण का ही समूल नष्ट करने का उपाय करना चाहिये। सबसे अधिक आवश्यक बात है नाक को पूर्ण रूप से हर समय स्वच्छ रखना। ऐसा करने से काफी बढ़ा हुआ रोग भी साध्य हो सकता है। नाक को स्वच्छ रखने से तात्पर्य यह है कि बहनेवाले स्त्राव को नाक में बिल्कुल जमने न दिया जाय न उस में जमकर सूख जानेवाली खपलियों को ही रहने देना चाहिये। नाक को साफ करते समय योग्य साधनों की सहायता लेते रहना चाहिये। नाक को इस प्रकार धोना चाहिये कि नाक के भीतर से खपली निकल जाय परन्तु उसकी जगह दूसरी न जमें। यदि स्त्राव को भीतर ही