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.....www---- समयम जब नित्य ही अन्नदानकेलिये नये नये गालि यहाँसे गेहूं एवं तरी अन्न ज्ञानकोश (अ) २३८ अन्न पर मिलता है। एक साधुको दी गयी सनदो भी समय तो इसका कोई विचार ही सम्भव नहीं इसकी चर्चा मिलती है। रा० खं-१५, १५४, १७६ | था। किन्तु आधुनिक समयमें जब नित्य ही खं-१५-१५५-१६२) प्रति वर्ष अन्नदानकेलिये नये नये आविष्कार हो रहे हैं, प्रत्येक मनध्य यहाँसे गेहूं एवं तूरी दिल्लीमे ले जानेकी भी चर्चा | अपनी सुविधा, स्वास्थ्य और स्वादके अनकल मराठी पत्रों में लिखी मिलती है। (रा० खं-१५,७६०, पाक क्रिया में भी हेर फेर करता रहता है। १२३, ६४, १२६, ६१.१४--६, १६२, १८५), अन्नको जितना भी महत्व दिया जावे कम ही अन्न-इस शब्दको अनेक परिभाषाय की | है क्योंकि मानवजीवन ही नहीं किन्तु उसका गई हैं. किन्तु बहुमतसे अन्न उसको कह सकते पूर्ण-विकास भी इसी पर निर्भर है। यही कारण जिसकी वृद्धि कृत्रिम रीतिसे होती है। इस है कि संसार की अधिकतर जातियों में इसका परिभाषाके अनुसार फल, कन्द, अनाज, पशु, बहुत कुछ धार्मिक महत्व रख दिया गया है। ज्यों पक्षी तथा मछलियाँ इत्यादि सभी खाद्य पदार्थ | ज्यो सभ्यता तथा वुद्धिका विकास होता जाता इस श्रेणिमें श्राजाते हैं। है धनसम्बन्धी विचारोमें भी उलट फेर होता अन्नका व्यवहार भिन्न भिन्न देशों में भिन्न भिन्न जाता है। अनेक जातियोंमें अन्नके विषयमें अनेक प्रकारसे होता रहा है। वैद्यक दृष्टिसे ही नहीं विचित्र विचित्र भावनायें तथा नियम देख पडते किन्तु सामाजिक दृष्टि से भी अनकी अनेक श्रेणियाँ | हैं। भारतवर्षमें उच्च-श्रणिके हिन्दुओके रसोई- की गई हैं। मानव समाजके चिन्तन का यह घरकी पवित्रता बहुत शीघ्र ही नाश हो जाती है। विषय सदासे ही एक मुख्य अंग रहा है। देश बिना पूर्णरूपसे पवित्र हुये रसोई घरमें प्रवेश और कालके अनुकूल भिन्न भिन्न जातियोंने इसको | करनेका निषेध है। मद्रासके ब्राह्मणोंका भोजन बहुत कुछ आर्थिक तथा धार्मिक महत्व दे डाला है। बनते समय यदि शूद्र अन्नको देख भी ले तो वह सामाजिक दृष्टि से विचार-जीवनके अन्य साधनों अन्न अपवित्र हो जाता है। रजखला स्त्री को की अपेक्षा पहले पहल कदाचित् मांसका ही | पाक-गृह में जाना वज्यं है। छोटे तथा सुकुमार प्रादुर्भाव हुश्रा होगा. और यह व्यवहारमें भी बालकोंको सब के सामने भोजन करानेसे 'नजर' अपने कृत्रिम रूपमे ही ( कच्चा ही) लाया जाता लगनेका भय रहता है। जोरोस्ट्रियन लोगों में होगा। सदासे ही मानव जातिको यह विशेष रात्रिमें उत्तर दिशामें भोजन फेकनेका निषेध है। प्रियकर भी रहा है। शतपथ ब्राह्मणमें तो कहा योरोपियन किसान आज भी अग्निमें रोटी छोड़ने भी है कि सर्वोत्तम अन्न 'मांस' ही है। किन्तु की हिम्मत नहीं करता। अवशिष्ट अन्नको हिन्दू उष्ण प्रदेशों में इसका उपयोग कम होने लगा है। सदा से अशुद्ध मानते चले आये हैं। भारतवर्ष इसी भाँति मदिराका भी बहुतसे पूर्वीय देशोंमें के अनेक महर्षियोका यह मत रहा है कि अशुद्ध निषेध किया गया है। कदाचित् इसका कारण अन्न तथा नीचौका अन्न भोजन करनेसे वुद्धि देशकी जल-वायु ही कहा जा सकता है किन्तु तथा श्री का ह्रास होने लगता है। बहुत सी सर्वमान्य करनेके लिये इसको धार्मिक स्वरूप दे जातियों में भिन्न भिन्न अन्नोको सदा के लिये त्याज्य दिया गया है। मांसको जो महत्व दिया गया है माना है। नवहो ( Navahos ) लोग मछलियों उसका कारण इसका विशेष पौष्टिक गुण ही है। को नहीं छूते। हीब्रू और मुसलमान लोग सूबर प्रागैतिहासिक कालमें जब मानव-जाति अग्नि का मांस अपवित्र मानते हैं। हिन्दू लोगोंमे गो के उपयोगसे अपरिचित थी, उस समय तो अन्न मांस का निषेध है। ब्राह्मण यज्ञके बिना मांसा- का व्यवहार अपनी प्राकृतिक स्थिति में ही होता हार नहीं करते थे। भिन्न भिन्न पशुपक्षियोके था। किन्तु ज्योज्यो सभ्यताका विकास होता मांस का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। बहुतेरी गया अन्नके रूपान्तरमें व्यवहार किया जाने लगा। जातियाँ तो इस सम्बन्धमें विचित्र विचित्र भाव पाकक्रिया में भी अनेक भेद होने लगे। किन्तु भावनाओंसे जकड़ी हुई हैं। अमेरिकामें स्थूल सम्पूर्ण पाकशास्त्रका सारांश केवल तीन क्रियाओं शरीरके पशुओका मांस व्यवहार में लाने से में ही समाप्त हो जाता है-पकाना, भूजना और हिचकते हैं. क्योंकि उनकी यह धारणा है कि उबालना। भिन्न भिन्न खाद्य-पदार्थोंकी वैद्यक- ऐसे पशुओके मांस के खाने से वे भी स्थूल और दृष्टिसे अथवा स्वादके विचारसे भिन्न भिन्न पाक- सुस्त हो जावेगे। नामाक्वार (Namaquar) तथा क्रिया की जाती है। जिस समय चूल्हे इत्यादि काफिर खरगोशका मांस इस भय से नहीं खाते तथा बर्तनौका आविष्कार नहीं हुआ था उस कि उसके खाने से वे डरपोक हो जावेगे। मुस-