यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

है कि 'जगत मिथ्या है. व्यावहारिक द्रटिकें ३ अनुसार तो शंकराचार्य भी जग, जीचन्धरमेम्बर में भेद मानते ही हैं 1 शंकराचार्यकें 'मायावाद' का महत्व केवल इसीऐबातर्में स्पष्ट हो जाता हैं अबैत’ धादका समधन करनेबाखोंका क्लाहैं कि "मायावाद" हीं उपतिपदु ग्रंथों के व्रर्दे'त सम्बन्धी धाक्योंका समन्यय कर रिखलानेयाली दुधारी तलवार है । उसी प्रकार मिशटामें एकता देखवेकै सिये की 'मायावादृ' षटुत उपयोगी है । क्योंक्रिमाया का आस्तित्व ही व्यवहारिक होनेकै कारण ष्यधहारमैं होनेवाली सब्र प्रकारकी हैं विविधताये गुज्ञाश्य है । पारमामिक दृष्टिसे भायाका अस्तित्व हीन हींगेके कारण पूर्ण एकता ५ पाकौघच जानी है । अर्दतधाव्रका समर्थन इसी तरह होता है रांकराचार्यकै पआत् स्थापित हुए वैदिक दृ भर्तीका सूदमनिरोदाण करने पर दिखाई देगा 3 कि रामानुजनै अपने 'दिश्विष्टर्दत' को सांख्यके ८ परिणामदाद ( evolution theory ) पर खडा हँ किया । उसी तरह मघवाचार्मने अपने 'बैत' का प्रतिपादन बैरथापिकौ कौ 'परमाणु' कल्पनाकों सोफार कांके -किया ओर उसे आत्मावाद हूँ की पुष्टि दी । ग्रड्सभाचार्यका पुष्टिमार्ग प्रधान हू भक्ति साम्मदाय भले ही अबैत हो सीमी उसका प्रतिपादन तीय भावनाओकौ एफतासे दुआ 1 दिखायी ऐटाहै । इस तरह अर्दतमागों यहीं मानते हैं कि शड्डराथार्यका निरोध क्योंपाने माइके आचार्योंने जो मत स्वीकृत फिरेंथे ये शड्सराबार्यकै पह्रतेसे प्रचसित्त ये । वादकै आचार्षोंने केवल अपनी तुबिकी कुशलता से उनमे थोडे स्तुत हैर फेर फिये । इन सन रष्टिर्योते देब्रनेपर यह मानना पडता है कि णामृचार्थ द्वारा प्रस्थापित नया मत ही अत्यन्त ३ महत्वपूर्ण है ओर यहीं विचार-विकास की परम सीमा है । हँ अदैन भतरा क्या।। भारतीय तत्यज्ञानका संसाएकै ५ 7 विचारोंषरषरिणाय-इस समय संसास्मैजीनित उदुगम ओक संस्कृनिमैं हैं । आधूनिक शाओग्र अन्वेषणोंसे सिद्ध हो चुका हैकि प्लेटो सार्कटीड ओर पिंथागोस्त आदि वीक ,तत्ववेत्ताओके अन्धी ओर भारतीय आध्यात्मिक प्राथोंका तुतगात्मादे टयिसे बिचार करनेपदृ आत्माका अमरत्व पुनर्जन्म आदिक कल्पनाएँ मोक तत्पवेत्तार्चोंने भारतीय तत्वपानसे हीं मोडे षटुत विकृत रुपमे अपना ली हैं । तुलनात्मक भाषा शास्त्रका उत्पान्फ सर विलियम जीन्त एक जगह लिखता है… भारलीयोंफी उष. स्पष्ट, विशद ओर व्यापक तत्वडानपद्धतिका ओफ तत्त्वडानपदृतिसे मिलान क्ररनेपर यह कहैं विना नहीं रहा जाताफि मीफ लोंगौकों भारतवर्ष ही से वह तत्वडान प्राप्त पुआ ऊपर उर्तिखित निमाँणयादृकी अपेक्षा आज़- कल संसार 'विकासवाद' ( परिणाम बाद)कौ ही अधिक मानता है । समस्त आदिभौसिक शाख झुसी विकासवाद पर खडे हैं, किन्तु शाखीयतान को फ्फऐसौ तीव्र पिपासा होती है जो ऐसे शासकों हस्तगत करना बातूनी है जिसके घतषर इस चराचर बिम्बका स्पधीकरुण किया जा सकै पाश्रास्य हेंगस्त्र ऐसी एकता खोजकर निकाह्रनेदु लगे हुए । परन्तु इस साम्प्रदायकै अनुषा का कथन है कि 'अबैत‘ प्रत तो 'त्रिधर्त’ धाई कौ ज्यव्र कर आनेके मांर्गकौ स्पष्ट कर देता है जिन जिन लोगौने तस्वडानके त्मापै विचार किये हैं, बारे पाम्रात्य हों या पोरस्ता, वैदिक धेदोंकौ माधनेपाले ) दो या अवैदिक, तरुवमानके साम्राज्यमैं ये केवल एक अद्वितीय तालुके सिवा पाकी साकी गौण समभले हैं । प्लेटो. केंट या अवैयवादी रुपेन्सर अथवा द्दक्तले आदि अझेयधादी रुपेम्सर अथवा द्दक्तले आदि किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन तत्वभिडासुकों लीजिये तो दिखायी देगा कि उनमैंसे हरएक निम्भर्णफ, निष्कलंकस्का। की ओज करुरहाहै। फिर हैरी भारतीय डार्दतबादी दुब्रशौकोडेबिध्यास कि पृर्णसुम्नके पीछेघुढ़ ड़कैघो फीतरह डोंरसे दौड़ते दौड़ते अन्तमे पाश्चात्य शाणोंफी अबैत‘ मसके 'विवर्तबाद’ के पडाव पर आकर द्धारा सुस्तानां पडेगा वाडटुमय-येदान्तसार-ख्यार्नहा वेदान्न- परिभाषा-धर्मराज; ब्रहातूत्रभाष्य-र्णकास्थार्य; गीताभाष्य-शंकराचार्य; उपनिषद्धारुय-शंकराचार्यद्र पब्बपादिका-सुरेन्नगबार्य; चिरुतुची-चिन्तुख- मुभिहु खण्डनआद्य-हर्षा अर्दतसिद्धि-मघुसूश्च