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भार्गधके समान धारण वैद्य, मीद, जलदके साथ ही पतायेदुएगाम क्योंमोद्भ दिये गये 1 इसके ८ सम्बन्धर्मे तर्क करना कोई सामान्य पास नहीं है ५ उसी प्रकार शान्तिकल्पकै समान अग्य परिशिहँरै की उसकी अपेक्षा योग्यतार्में वहुत अधिक पढ़ चढे होते हुए भी अथर्वणसृत्रकै मरांषरीमैं पञ्च क्लमैंर्में ही उसे स्थान क्यों दिया गया, इस पर अपनी बुद्धि लगाना कोई सरल काम नहीं है 1 हाँ ऐसा कहा जा सकता है फि मित्र मित्र महत्व- ३ पूर्णग्रक्योंके नाम दिना क्तिपे बिशेष प्रयोजन हीं क्या किये गये हीं ऊपर कहा जा चुका है कि कोंशिक्रभूव चार शाआओकौ संहिता बिधि है । इससे सिद्ध होता ५ हैकि श्चशाखा भेदौकी भांतिसंहिटाओमै भी ३ भेद होगा अथवा कमसे कम एक ही संहिताके सूत्रोंमे मेद होगा सम्भव नहीं । आजतक प्राचीन ३ अथवा काश्मीर प्रतिके अतिरिक्त पोई दूसरी शाखासंहिता नहीं देख पडी । प्रो० रथिने अपनी पुक्तकमैं काश्मीर प्रतिको 'पैप्पलाद' कहा है किन्तु ३ अभ्य स्थश्चकें पपिडत इससे सहमत नहींहैं न्तुमफील्यफा कथन हैं फि ५स विषयमैं क्या। हैं कस्नेका कोई फारणही नहीं है। फभीकभी टू अथर्वबेदीय प्नक्योंकौ "पैप्पलादि' नाम बिचा 3 कारणहीं देवियां जाता है किंतु उन क्योंके ५ अर्थसे इस शाचाका कोंई समन्ध नहीं राता यहीं स्थिति दूसरे वेदग्नन्धीके सम्बन्धमैं भी होनेकै हैं कारण रस विषयमे विशेष लिखनेकौ आवश्यकता ५ नहींदैम्न पड़ती 1 यहष्ण ज्ञा सकताहैकिं 2 प्राचौनप्रतिशौनफ शाखाकीहैं। यहीं अधिक ठीक भी मासूम होता है । अथर्वपद्धतिर्मे नैताम मूत्रकों शोनकसूत्र कहा हैं ओर रस विधानमै ५ क्या हूँहैज्जकक्वहेर्द्धई हँथाहुँ हैव्रक्यों हैराअहैहेहैंर्द्ध

अर्थातू प्राचौन प्रति भी इसी शौनकीय शापाफी है । इस दातकै सिये काफी प्रमाण है अयकैणवेत्रकै साहित्यमे हमेशा आनेवाली रफ सांप्रदायिक कल्पना यह भी है फि प्राचीन प्रसिके १११ में दिये हुए येत्रिषप्ता के श्वलेर्में अधर्वणसंहिटाका आत्मा शनोदेदी रभिपृये3 के अन्मसे पुआ है, शनोदेबीरभिष्टय द्दतिएवमाद्वि छंवानुथर्वण वेद अधीथेतमृ यह गोपथ वा० १, २९ में सिखा सुआ है । क्लयशमैं वेदके आरम्भके मात्र दिये हुए हैं, उसमें अथर्वण बेदका आरम्भ शनोदेबीरभिदृये के मनसे किया है. डॉ० होगके कथनानुसार कुछ प्रामीन हस्तलिखित प्रतिमोये अथर्थणवेदका आरम्भ शओदेयीरमिपृये के मन्त्र दृ से किया हैं । बाँ० होग तथा भंडारकरकै कथना- नुसार अथर्ववेवानुयावीप्रत्येफ भनुन्यकौ चगुहिये ५ कि मुँह धोते समय ये त्रिषप्तादृ तथा र्श्वनैग्यपी रमिष्टये के अस्त्र कहे । भहाभाप्यकौ प्रस्तावना ५ में दिया है कि शंनोंरेवीरभिष्टये अथर्वमैदके आरम्भका मन्त्र दै 1 पैणखाद संहिटामैं, जिसकी थूरपमे उपलब्ध केवल एकही प्रति ओ० क्यों हैं अधिकास्मैहै । उसका पहला पृष्ठगलगयाहैं हूँ परन्तु उसका भी भसहै कि संहिताकापस्ता ३ मन्ध ऊपस्वाखा ही होना चाहिये क्योंकि वह ३ श्वप्रतिकेअन्य रुथानमें कहीं नहीं आयाहैं। ५ यह बात करीब करीम निश्चित है इसकों माननेमै दृ कोई भी बाधा नहीं रह जाती पयेयेंकि अथर्व परि- ५ शिष्ट ३४२० में पैप्पलादि शान्तिगणका आरम्भ हुँ शवोदेवी के प्रतीकसे किया हैं शौनक र्तदिताका आरम्भ । ये बिपस्सा कैमस्त्रसे होता है । हीगके मतानुसार अथवैयेएश आरम्भ ‘ख्मीदेबी' के श्वसे दुआ है ओर वह ३ मन्त्रफिरसेअपने यथोचितरुथान पर १६१ मैं आया है ओर उसहस्तलिचित प्रतिमे यह ५ मन्त्र उपरोक्त सम्प्रवांयानुसार थादर्में मिलाया ड्डे पुआ टोया। अथर्व परिशिष्ट अर्थातू प्राचौन प्रति भी इसी शौनकौय शागाफी हँ 1 एस बातकै सिये काफी प्रमाण है अक्सीणवेत्रकै साहित्यमे हमेशा आनेवाली पफ सांप्रदायिक कल्पना यह भी है कि प्राचीन प्रतिके १११ में दिये हुए 'येत्रिषप्ता' के यदलेर्में अधर्वणसंहिटाका आत्मा 'शनीदेदी रभिपृये3 के अन्मसे पुआ है, "शनोदेबीरभिष्टय द्दतिएवमादि रुत्वाड्डथर्यण वेद अथीयेत यह गोपथत्रा० १२९ में सिखा हुआ है । क्लयशमैं वेदके आरम्भके मात्र दिये हुए हैं, उसमें अथर्वण नेदका आरम्भ शनोदेबीरभिष्टये के मनसे किया है. डॉ० होगके कथनानुसार कुछ आमीन हस्तलिखित प्रतियौमैं अथर्यणवेदका आरम्भ 'शओदेयीरमिद्दये' के मन्त्र ८ से किया हैं । दों० होग तथा भंडारकरकै कथना- नुसार अथर्ववेदलुयावीप्रत्येफ भनुन्यकौ त्रुहिये ५ कि मुँह धोते समय ये चिपटा? तथा र्शनादर्वी रमिष्टये के अग्य कहे भहाभाप्यकौ प्रस्तावना ५ में दिया हैं कि शंनोंदेवीरभिष्टये अथर्षयेदके ३ आरम्भका अस्त्र दै । पैप्पखाद संहितामैं, जिसकी यूरपये उपलब्ध केवल एकही प्रति ओ० रर्थिफे हैं अधिकास्मैहै । उसका पहला पृष्ठगल गयाहै हूँ परन्तु उसका भी भसहैं कि संहिताकापहता मन्य ऊपरवाला ही होना चाहिये क्योंकि वह ३ मन्त्रप्रतिकेअन्य रुथानर्मे कहीं नहीं आयाहैं। ५ यह बात करीब करीम निश्चित है इसको माननेमै ६ कोई भी बाधा नहीं रह जाती पयेमैकि अथर्व परि- ५ शिष्ट ३४२० में पैप्पलादि शान्तिगणका आरम्भ हुँ शवोदेबी कै प्रतीकसे किया है शौनक र्तदिताका आरम्भ । ये विपाशा' केमस्त्रसे होता है । हौगके मतानुसार अथवैयेएश आरम्भ 'श्योदेवी' के श्वसे दुआ है ओर वह ३ मन्धफिरसे अपने यथोचितश्या पर १६१ मैं आया है ओर उसहस्तलिचित प्रतिमे यह ५ मन्त्र उपरोक्त साप्रवांयानुसार बादमे मिलाया ड्डे दुआ टोया। अथर्व परिशिष्ट ४५, ६, 'वेद त्रय' स्वऱदेशेन' बिथिमे इस प्रकार विधान किया है फि ये त्रिघप्ताद्र