यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अथवॅवेदके शाखा सम्बन्धी पुराखाके अन्तिम किन्तु अति आधिक व्यवस्थित वणॅ तथा अन्तिम भागमें रामकृष्णा तथा गणपति आदिका वणॅन और (४)अथवॅवेदके साहित्यमें स्थान पर प्रसंग वश आए हूए उल्लेख अथवॅवेदके शाखाओंका बहुत बार विचार हो विचार हो चुका है। देखिये-बेवर इंडिश स्टूडिएन १.१.२,२६६;३,२७७.२७=;१३,४३४. ४३पू;ओमिना पोरटेन्टा पृष्ट ४१२.४१३;इंडिश लिटेचर गोशिष्टे पृष्ट १७० मैक्स मुल्लर'प्राचीन संस्कृत वाडय'पृष्ट ३१'गोपथ ब्राहणकी राजेन्देलाल मित्रकी प्रस्तात्रना,पृष्ट ६,शब्द कल्पदम;वेद,राथ,काश्मीरी अथववेद पुष्ट २४;क्ष.क्षो० सो० गि० का पू० ११ पुष्ट ३७७.३७=;सायमन,बैट्रागन्यूर केन्टिनिस डेरवेडिशेन शूलेन पुष्ट ३१। उपरोत राथके ग्रथोंमें उसने शाखा विवयकी सैम्प्रदायिक कल्पनाक्षोंका बुहतही व्यवस्थित रीतिसे तथा चिकित्सक बुध्दिसे परीक्षण किया ह। उसने सिध्दान्त निकाला है कि शाखाक्षोंकें इन नौ नामों में से पाँच सक्षो तथा विक्ष्वासनीय होनेके कारण माने जाँय और बाकीके चार अविक्ष्वाशनीय होनेके कारण छोड दिये जाँय । ब्लूमफील्ड के मतानुसार क्षथवॅवेदी लोग स्वयं स्वयं किन किन विभित्र शाखाऔं को मानते थे। जिस प्रकार अथवॅवेदेके पाँच कल्पों के सम्बन्धके साहित्योंमें उसकी शाखाक्षोंके सम्बम्धमें स्थान स्थान पर क्षाये हूए उल्लेखोंकी उपर विश्वाश करने के कारण इन विशषोंकी साम्प्रदायिक कल्पनाओंकी त्रुटियाँ ठीक हो सकी हैं। साथही यह बात थ्यानमें क्षायेगी कि अथवॅवेदा लोग स्वयं किन किन विभित्र शाखाओं को मानते थे। जिस प्रकार अथवॅवेदके पाचँ कल्पों के सम्बन्धके साहित्योंमें वणित परस्पर विरुध्द वणॅण एकत्र करनेसे एक हढ सिध्दान्त निकलता है (देखिये क्ष० क्षो० सो० का० पु० ११ पृष्ट ३७६) उसी प्रकार यहाँभी परस्पर विरुध्द वणॅनोंसे तत्व की बात निकालना सम्भ्व है,इस विषयके ऊपर दिये हुए मूल आधारोंमेंसे चौथा अथात प्रत्यक्ष अथवॅणवेद सबसे महत्वका है। इसके सम्बन्धमें संशय होनेके लिये कोई स्थान नहीं हैं। ब्लूमफोल्डको छोटे चरण व्यूहकी चार हस्त लिखित प्रतियाँ मिली हैं। उसमें इस विषयके उल्लेख दिए हुए हैं-तत्रत्रहावेदस्य नवभेदा भवन्ति तघथा। पैप्पलादा: तौदा: मौदा: शौनकीपा जाज़ला जलदा ब्रहावदा देवदशा: चारण वैघाक्ष। इस कारण उसके मतानुसार अथवॅ वेदकी शाखाऔंके यही नाम हैं। तत्सम्बन्धी वणॅनोंमें क्षनेक त्रुटियँ होनेके यही कारण हैं कि हस्तलिखित प्रतियाँ पढी नहीं जाती बादके लेखकोंने ज्ञान वूभूकर इन शाखाअओंके नाम टेढेमेढे रक्खे और अन्तमें इनके नये नये भाग भी मिलाये हैं । इस बातको ब्लूमफील्ड मानता है। (१) पैपलाद अथवा पैप्पलादक,पैप्पलादी,पिप्पलाद,पैप्प्ल,पिप्प्ला पैप्पलायन। इन सत्र शाखाओंके नाम आचायॅ पिप्पलादीके नामसे बनें हैं। (२) तौद क्षथवा तौदायनके ही बदले हुए नाम तौत,तौतायन, तौतायनीय,आदि हैं। (३)मौद पैप्पलाई गुरूं कुयात क्षीराष्टारोम्य वधनम। तथाशौनकिना चापिदेवमंत्रविपधतम । पुरोधाजलदो यस्य मौदोवास्यात्कथचन। अब्दात दशभ्यो मासेभ्यो राष्ट भ्रशंसंगष्टति। इस प्रकार अथवॅ परिशिष्ट २ ४ में लिखा है,इस शाखा का पैप्पलादायन तौदायन ,जलदायन के समान 'मौदायन'भी नाम है। (४) शौनकीय अथवा शौनकिन । बैतानसूत्र ४३,२पू में लिखा है कि जो चेटकी विधा जानना चाहता है, वह शौनक यक्ष करे । पाखिनीने शौनक गएके देबदशनीया,पद जोड दिया है। (५)महा भाष्यमें जजलीनामक आचायॅके नाम से जाजल शाखा दी है,अथवॅ परिशिष्ट ४६ में इस के वदलेमें 'जाव ल'आया । राथका मत है कि कौशिकसूत्र ६,१०; १७, २७; वैदान सू.१,३;२२,१;२=, १२;में आया हुआ भागली आचायॅ इस शाखा का स्थापक होगा। परन्तु ब्लमफील्ड का कहना है कि इस मत की पुष्टिकरनेके लिये कोई प्रमाण नहीं मिला । (६)जलद का जलदायन रूप भी आता है। रा० शंकर पांडुरडके कथनानुसार कौशिक सूत्र जिस शाखाअओं का है उन्ही में से जलद भी एक है। (७) ब्रहावद । चरणव्यूहके अतिरिक्त और किसी अथवॅण ग्रंथमें यह एक शाखा का नाम है,कौण,ग्रंथोंमें इसी नामके व्रहापल,व्रहाबल, व्रहादावबल,व्रहापलाश,तथा इससे भी अधिक अरम्रष्ट रूप आते हैं। (८)देवदशॅ अथवा देवदशिन के दिवदशॅ,देववि, वेदशॅ आदि अनेक बदले हुए रूप आते हैं। (९) चारणवैध विधा केशत्रके कौशिकसूत्र ६,३७ में मिलता है। ब्लूमफील्डके मतानुसार यह बात माननेके लिये कोई भी बाधा नहीं देख पडती कि यहाँतक दियेहुए अथवॅवेद की साम्प्रदायिक शाखाअओं का वणेन निशित स्वरूप का है। अनेक शाखाअओंमेंसे शाखाअओंके यही नाम क्यों पसन्द किये गये और