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क्षथव संहिताके क्षथग्गजानके लिये इसका बहुत मूल्य है। शेष प्रन्थोंकी उपेक्षा इसमें विशेषता यह है कि क्षथवसंहितासे परेके मन्त्रोंका क्षवतरण इसमें शायद ही कही आया हो। क्षथव सूत्रकी अपेक्षा गहसूत्रकी भाषा बहुत ही क्षस्पष्ट है,और इन दोनोंका भेद दिखानेके लीये बहुतसे पारिभाषिक प्रमाण भी हैं। दोनोंको पढानेके पशात पाठकोंका यह मत हो सकता है कि क्षन्तिम संस्करणके समय क्षाधुनिक सस्करणके किसी एक सामान्य गहसूत्रमें क्षथवसूत्र मिला दिये गये होंगे। इन गहसूत्रोमें फोरन ही ध्यानमे क्षानेवाली एक विशेषता यह है कि क्षथववेदमें स्थान न पा सकनेके कारण सकल पाठके क्षनेक मन्त्र इनमें अनेक बार क्षाय हैं। बहुत से स्थानोंमें तो एक ही मन्त्र प्रतीक तथा सकल पाठ एक साथ एक साथ ही आतें हैं ६'२ में में प्रतीक तथा सकल पाठके बाद आया है।४२,१पू.१७; ३२ २०, २१,६=६.२पू २६;४२,१३,१४;६०.२पू;६१.१;क्षादिमें प्रतीक सकल पाठके पहले आये हैं। कभी कभी सकल पाठके मन्त्र तथा क्षथववेदसे बिल्कुल स्वतन्त्र भी हैं। गहसूत्रकी प्रतिकें जिस रीतिसे दी गई हैं उनके क्षवलोकन उनकी भाषाशैलीका जान हो जाता है। ६४.२७ में 'इति सूक्तेन'आया है पू३.१३ में'इति अनेन सक्तेन',पू४ में'इति सूकनेका उल्लेख हुआ है। १,२० के दो प्रतीकोंके पहले'उभयो:'शब्द व्यथ ही लगाया गया है। क्षथयसूत्रमें इस प्रकारके शब्द करीब करीब नहीं आया हैं। उसके विरुध्द केवल तीन उदाहरण मिलते हैं। ६.२,३पू.१२,में'इतिएक'(त्रक) का अथ इस प्रकार दिया है कि वहा के प्रतक सूत्रोंकी एक त्रचा कही जाय ।६.१= का'इति स: सवेण सक्तेन' क्षाधिक मिलाया हुआ देख पडता है। किन्तु तौ भी इस विषयमों यों कहा जा सकता है कि गहासूतत्रोमें बडे सूत्रोंका उल्लेख होनेके कारण उसमें की विशिष्ट ऋचाका विस्तुतरूपसे उल्लेख करना आवश्यक है। तथापि यह बात ध्यान देनेकी है कि उपयोग स्थानोंमें बहुतसी जगह एइसे बडे सूक्तका उल्लेख नहीं आया है। अथव सूत्रमें आ+चम धातुका 'क्षाचमयति'रूप आया है किन्तु अन्य स्थानों पर 'आचामयति' आया है। इसी प्रकार 'हू'धातुके वतॅमानकाल वाचक कुदन्तका पुखिद्र प्रथमा एक वचन 'जुह्त' अथवॅसूत्रमें दिया है किन्तु गृहासृत्रमें 'जुहन'दिया हुआ है। इससे तथा अन्य प्रमाणोंसे भी यह बात स्पष्ट है कि अथवॅ तथा गृहासृत्रोंकी भाषा भित्र हैं। गृहासूत्रकी भाषा विस्तृत तथा सरल है किन्तु अथवॅकी भाषा संक्षिस तथा पारिभाषिक स्वरूपकी है। गृहासूत्रोंकी भाषा अथवॅ सूत्र और तेरहवें अथ्यायके बीचकी भाषाके समान है। यह पहले कहा ही जा चुका है कि तेरहवें अथ्यायकी भाषा करीब करीब परिशिष्टकी भाषाके समान है। यह सदा ध्यानमें रखने योग्य बात है कि अथवॅसूत्रमें अथवॅवेदके १६ वें कएडिकाका बिल्कुल ही अवतरण नहीं लिया गया है क्योंकि कौशिकसूत्र और अथवॅके ६६ वे कएडिकामें बहुत सम्बन्ध है। ब्लूमफील्डका मत है कि उपरोत मत बिल्कुल ही अवाधित रहना कठिन है तथापि आगे दी हुई बातें स्पष्ट ही है। कौशिक शूत्र बादके शत्रोंके समयके हैं। उनमें भित्र प्रकाकरे स्तर हैं जो विशेष निपुणतासे नहीं मिलाये गये हैं। उन प्रत्येक स्तरका विशिष्टरूप भित्र भित्र लेखकोंके भित्र भित्र कालके कारण हो होगा। विषय,भाषाशैली,तथा परिभाषा इत्यादिमें अन्तर होनेके कारण ही यह बात सिध्य होती है कि अथवॅ तथा गृहाशूत्रोंमें भेद हैं। तेरहवें तथा चौदहवें अध्यायोंकी रचना पूणॅ ग्रन्थके बादकी है और बहुत प्रयन्त करके भी यह बात छिप नहीं सकी। पहले अथ्यायकी पहली ६ कैएडिकायें इस ग्रंथके आखिरी स्तर की होंगी। कौशिकसू त्रका उसकी संहितासे सम्बन्ध -अथवॅवेद की नौ शास्त्रायें थी। अथवॅवेदका अथ्ययन करनेवाले विघाथियोंको पहले इस हढ साम्प्रदायिक विक्ष्वासका ध्यान रखना पडता था। इस साम्प्रदाथिक विक्ष्वासके मूल आधार चार हैं- (१)दो चरण-व्यूह। पहला चरण- वयूह यजुवेदका पाँचवाँ परिशिष्ट है और उसके पहले अथ्यायमें अथॅवेदकी शाखायें दी हैं। दूसरा चरण व्यूह अथत्रवेदका ४६ वाँ परिशिष्ट है और उसमें इस विषयके बारेमें थोडेमें विचार किया गया है।(२) पाणिनीकी अष्टाथ्यायीमें,महाभाष्यमें तथा अन्य पाणिनीसे परिचित साहित्योंमें प्रसंग वश इन शाखक्षोंका उल्लेख आया है।(३)