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क्या कह सकते हैं कि जिस समय ये आचार सृर्षों में 1 मिलाये गये उसी समय लगभग सब शाखावों की " ८ अधर्ष संहिता मुख्यत: तय्यार मुई होंगी । दुदुनरी पाल यह है कि ये सूत्र तैतान सूत्र इत्यादि से पहले काहँ ओर उन्होंने उनभैंकौ दानोंकौ माना है । ३ ८ वैटानकों अथ र्ववेदी धोता को एक छोटी सी दु पुस्तक कह सकते हैं । इसकी रचना ऐसे समय मैं दुई थी बिस समय इसकों भी सर्वमांम्य वेदों हुँ के प्रान्दीर्में प्रवेश श्कस्ना था । इसी कारण वेद ३ के यशैकौ विवेचना करने वाले एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की आवश्यकता दुई । यह घटाना कठिन है कि ३ कौशिक तथा बैसांड कै सूत्रों के संस्करण के बीच मे कितना समय पीसा । न्तुमफीहृउ का कथन हैं कि अर्थवेद के साम्प्रदायिक वीचारों को व्यवस्थित करना तथा सूत्र रुप में परिवर्तित फरनेका प्रयक्ष ड्स अर्थात् कौशिक सूत्र का निर्माण बहुत बड़े समय का है । इससे यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें ५ बनाये मुए आचार भी वाद के ही हैं । इस वेद १ की निधियेक्ति स्वरूप ही ऐसा है कि ममों का पठन तथा कृतियाँ अच्छी ताह की साँय । वहुत से सूक्त अथर्ववेद के ऐसे हैं जो पिना पूर्ण क्रिया के ३ उदाहरण के साथ हाथ उठाना गिराना इत्यादि पढे हीं नहीं जा सकते । कौशिक मूत्र एक दी ५ साथ तध्यार किया गया होगा । आज बो ग्रन्थ ५ का स्वरुप है वह किसी एक ही समयमे एकक्ति करके ग्रन्थ रुप मे दिया गया होगा । ग्रंथ का इससे भी कोई प्रावीन रूप रहा होगा । प्तमफीज्ज ८ इस यातकों मानने कों तैयार नहीं हैं कि ग्रंथ अग्नि मे संरुकाण के बाद स्थान स्थान पर अन्य भाग मिलाये गथे होंगे । वस्किजो बिषय इस ग्रंथ मे गये हैं वेस्वतन्त्र रूप से मित्र भिश ८ स्थत्यो से ही आये दुर होने । यह बात भी स्पष्ट हीं है कि इन संस्करणकारों ने इस की लेखन शैली को लगभग गद्यपरिशिदोकै लेखकै समान क सकते हैं । फपालेमाँगारा भधग्नि-अग्रारफल्प १३५. १, अथवा चतरुत्रों धेम्बा अपकृप्ताभधन्ति, बिता कृप्या रोहिणीनुरुपा चतुर्थी १२०. १८ ९२६. पृ,इस मों'तिकै वाक्य अथर्षतूत्रोंमैं नहीं ऐज पड़ेगें ९९७ मैं दिये हुए वाक्य अपेत्त एतु निर्वतिर इत्य-दृ हैनक्नो, तथा उसके आगे के सम्पूर्ण पार्टों के सूक्त 3 धसुत्त स्पष्ट दिये दुर है । फ्लो भाषा भी धदुन ५ अच्छी नहीं है । १८४. ३, ११३, ३. १२६१ . १३३ 1 २, के'एताठयाँ सृकाग्याम्र'; ११३१ कै एतेत्रि भिद्र दृ सांहैंरा; १३६ ६ के इति फ्ताम्यां ( ऋम्भयाम्क्वे ३ ११२, १ के 'इति 'स्वाभिद्र धतमृमिदृ (ऋभिदृ हैं कै विधयर्में भी उपरोक्त ही धारणा कौ जासकती है । १३र्वे अध्यायमैं भाषा अधिक स्पष्ट तथा 2 क्लिष्ट देख पडतो हैं ९३ वी र्कडिकामैँ बिषर्योंकी अनुक्रमाणिका अलग देकर इसअदृत बिपय के १ अध्याय का आरम्भ किया है (इससे यह स्पट है कि यह अध्याय अवश्य दी खतम्प्र रीति से हूँ तय्यार किया गया है । ऐसी अब्ररथामें यह कहा ३ जा सकता है कि कौशिकत्प्रकै संफ्ला कर्ताओं ने इस अध्याय को बिस रुपमें प्राप्त किया होगा ५ उसी रूपमें अपने मंथीभे मिलालिया होगा। ५ प्रो०-धैषर का भी यहीं मत है ब्लूमफीरुद भी स्सी भत को मममा है । कौशिक सूनोंके क्या भागो मे जो भिस्ता देख पड़ती हैंतथा भिज भिज ग्रंथकारों ८ के मित्र भिव्र भाग मालुम पड़ते हैं उसका कारण यहीं हैं कि रन संस्करण कलाओ उन्हें ठीक रीतिसे मिलाने काप्रय क्षहीं नहीं किया । "टौमी उन भिन्नटाओमैं वहुत सी समानता हैं । कहीं ८ क्रहींपर तो लूत्रकारोंने अपने भरसक ग्रंधोंमैं दिये हुए बिषयोंमैं साम्यता ताने का प्रयत्न भी किंवा है । अध्याय १३ मे चातन गण ( ९६६९ मातुनामानि