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मैं यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य उत्पति यब पर उग्रेण अभय, आध्यात्मिक हैर जड़ अटकी के संयोगसे हुई हैं । परन्तु लिटर निब-ब राय है कि उक्त सूत' से कुछ मास: अर्थनहींविकलता । मतरह सदाब बोलने वाला मपुष्य अपनी बात पर लोर्ग१का विश्वास जमनेके सिये कभी कभी सच बोल देता है उसी तरह एढ़वारी को अपने इधर उधरसे माल कर बर हुम तखज्ञानको बल नजभि ऊँचा जैचवाने के ख्यालसे, अपनी श्रेष्ट रचनाये ह देना पड़ता है । इसकी बानगी ११र्ध कय और सन मिलजाती है । इससे अब वरुण, विज, (वेच, भग, विवस्वान, सविता, खाता, पुथपन ओर त्यष्टर आहि देवता. सिप: रब ही है और इनसे प्रार्थना की गदी है कि हमको पापसे बचायें । अत इस कथन रचना को न तो काव्य

ही

कह सकते हैं और तत्वज्ञान ही । इस रचनाकी आल सुललित रचना' एक लिम अथर्व-म है । इसमें कुछ अचार पृ-बीके उ-धम संबधित हैं किन्तु इसी कोई पढ़ यवकज्ञान भरा हुआ नहीं है । अत: इसे केवल कवमय कह सकते है । इसे मची से कहते हैं । यह अथर्व वेद के १२ में काण्ड का पहला ही जल है । इसकी ६३ ऋचाओं मैं सको समस्त ऐहिक अतु-के धारण करने और उनका संरक्षण करने वाली माना है ओर उसकी माय की है कि पुर समस्त संकशीले बचाये और कपार: है भारत-के प्राचीन धार्माक बमय असल भी बहुत उदर रचनाएं देखने को मिलती है (उदाहरण सू-कप उक्त पृपरीक्षढ़की कुछ अचार नीचे देते हैं-- सत्यं बह-; दीदार तप. यहा यश: पृधिबी धारयन्ति । सा तो झुलस भव्यरय तथ लोक. पृथिवी न: कृछोत ।। तो ।। यार्णवेधि सलिल' असर यत मायाभिखवा चरन मनीला: । यया हृदय" परले व्यशेम-खस, तोनाधुवममृवं यश: । सानो भूनिरित्वषि यल. राई वधावन ही हैं: ।। यामन्दिनावमिमानां विचलित वि-) । शब्दों य: चक आत्मनेनमित्रों माचीपति: । का नो भूमि-लटों माता पुजाय में पथ; यु १० ही निरयते पर्वता हिसयवेरययं ते निधि स्वीनमन्द्र । वा] कृपण; रोहिणी विश्वम: सव; भूनि पुभिवीन्दअए । अजार्तहिनो अज्ञान अब पृखिवीमहम ही १रे हैं बजल-ये चर', मत्-ई बिमल द्विप. चप: 1 तन एधिधि पक्ष मानव येम्वो स्वीतिरमृते मसंल उद्या-ल रहिमभिरातनोति श्री १ए हैं भू.: देयेम्यो वदति यब अ-यम-लेय । भूम मनुन्याजीवन्ति ख१श्यर्सन मलती । खा नो भूली प्राणमस्कृदत्धातु जज मा य, कर्णम' ।। २२ यु यसूते भूने विखनाधि दि' तदपि रोका । मा ते मर्मविमृग्यरे मा तेव्यंयमत्र्षपए ।१३पयु यब गाय" बनि (याँ मझावैलवा, । युयते यक्यामाक्रन्दी यम: वदति दुन्दुभि । का नो फाम. प्रशुदनां सपखान- सालों मा पृधिवी करता ।। ४१ की मल: विज, गुरुमृद भत्रपापस्य निधन: तितिदु: । बराहेण पृथिवी सविदाना सूरुराय विश्चिहीते- बता 1. ४८ ।। भूले माय (य मा भव सुग्रतिष्टितए । आदतन, दिया कये सिया-म जसे २थयष्णु६३ अथवा':. शिर है. सत्य, ऋत, यक, तप, ब्रह्म और यश ही एन धारण करते हैं । वह हमारी भूत और भधिथयकी रबी है । वह हमारे लिये विस्तीर्ण कोक-की व्यवस्था करे ।। ( ही जो पहले सबमें जल ( रूप ) थी, मनम ( कोह ) ने जिसका जिन्न-भिन्न यर च कारण किया, जिसका उन्नत हृदय आकाश., सत्य से कुका हुआ और अमर है, वह पु-ची हब तेज और उसम रम" बल पन करे गु म 1: जिसकी माप अक्रिय द्वारा हुई है, जिसपर विज ज्यार्षण किया है, जिसको इन्दने अपने लिये शह रहित बना दिया है, वह पृथ्वी माता जैसे अपने क्योंका दूध देती हैं, देते ही हब दूसरे हैं १० ।। है पृथ्वी, तेरे गिरि ( पाप ) हिमाचल पकी, उथल आदिका कल्याण हो । पीली, काली, विद और भूव पूव, रच द्वारा सरला है, पर मैं अटल और. अक्षत ( बिना किसी बिग्रहके ) खडा हूँ [ ११ नि. तुझसे पैदा हुए मत्र्थकोग तुमपर पत्ते फिरते हैं, सायद ( हो हैरवाले ) और रब, ( कार पैरवाले ) का ते., करती है । (पु-ची : तेरी ये मानव जातियत्मत्यए (मरचशील ) हैं । इसके लिये