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HOTOS अथर्ववेद ज्ञानकोष (अ) १६७ अथर्ववेद है वैसे ही तू भी काट; बंधन में फंसा हुआ प्राणी उतो समुद्रौ वरुणस्य कुक्षी जिस तरह भाग जाता है उसी प्रकार हे कृत्या उतास्मिन्नल्प उदके निलीनः ।।३।। (जादू) तू अपनी कर्ताकी ओर जा ॥१०॥ उत यो द्यामतिसर्यास्त परस्तान्न - अथर्व संहिताके वे कांडके ३७ वे सक्तकी स मुच्चातै वरुणस्य राज्ञः। ऋचाओंमें जहाँ अभिशापमन्त्र योजक (कर्ता) दिव स्पशः प्रचरन्तीदमस्य सह- पर ही उलट देनेका उल्लेख है, वहाँ ऋचाओंकी साक्षा अति पश्यन्ति भूमिम् ॥ ४॥ भाषा बहुत जोरदार है। उनमेंसे कुछ ये हैं सर्वं तद् राजा वरुणो वि चष्टे उप प्रोगात् सहस्राक्षो युक्त्वा शपथो रथम् । यदन्तरा रोदसी यत् परस्तात् । शप्तारमन्विच्छन् मम वृक इवाविमतो गृहम् ॥१॥ संख्याता अस्य निमिषो जनानाम परिणो वृद्धि शपथ हमग्निरिवा दहन् । क्षानिव श्वघ्नी नि मिनोति तानि ।।५।। शप्तारमत्र नो जहि दिवो वृक्षमिवाशनिः ॥ २॥ ये ते पाशा वरुण सप्तसप्त यो नःशपादशपतःशपतः यश्च नःशपात् । वेधा तिष्ठन्ति विषिता रुशन्तः। शुने पेष्ट्रमिवावक्षामं तं प्रत्यस्यामि मृत्यवे ॥३॥ छिनन्तु सर्व अनृतं वदन्त यः अथर्व० ६. ३७. सत्यवाद्यति तं सृजन्तु ॥६॥ शाप क्रियाका कर्ता सहस्त्राक्ष (इंद्र) रथ शतेन पाशैरभि धेहि वरुणेनं लेकर इधर आया है। भेड़िया जिस प्रकार भेड़ मा ते मोच्यनृतवाङ नृचक्षः। पालनेवालेके घर आता है उसी प्रकार आकर वह आस्तां जाल्म उदरं श्रंशयित्वा हमें शाप देनेवालेको मारनेकी इच्छा करता है ॥१॥ कोश इवाबन्धः परिकृत्यमानः ।।७।। जिस प्रकार दहन करनेवाली अग्नि सरोवर या समाम्यो३ वरुणो यो वाम्यो३ को बाधा नहीं पहुंचा सकती उसी तरह, हे यः सन्देश्यो३ वरुणो यो बिदेश्यः । शपथ ! तू हमें बाधा न पहुँचा। जिस तरह यो दैवो वरुणो यश्च मानुषः ॥ ८॥ आकाशसे गिरनेवाली बिजली वृक्षोका नाश तैस्त्वा सर्वेरभि ष्यामि करती है। उसी तरह तू भी हमको शाप देने पाशैरसावामुष्यायणामुष्या पुत्र । वालेका नाश कर ॥ २॥ तानु ते सर्वाननुस दिशामि ॥६॥ जो शाप न देनेपर भी हमें शाप देता है, या अधर्व ४. १६. जो शाप देनेपर हमें शाप देता है उसे मृत्युके तीनो लोकका बलवान राजा दुष्टोंके कार्योंको सामने उसी तरह फेक देंगे जिस तरह रोटी कुत्ते समीपसे देखता है। संसार नश्वर है इसे वरुण के सामने फेंकी जाती है ॥३॥ और सब देवता जानते हैं ॥१॥ - वरुण सूक्त भी (अथर्व ४. १६) इसी वर्गमें मनुष्य खड़ा हो, चल रहा हो, छिपा हो; है। अर्थात् उसमें काव्य और अभिचार मन्त्रोका कहीं भी हो श्रादमी मिलकर कोई षड़यंत्र रचते मिश्रण है। सक्तके पूर्वार्द्ध में भक्ति के साथ वरुण हो, वहाँ तीसरा वरुण हाज़िर रहता है ॥२॥ का वर्णन किया गया है। कहा गया है कि हे यह पृथ्वी और श्राकाश सब वरुणके ही वरुण ! तू सर्वशक्तिमान है और सर्व-साक्षी है। आधीन हैं। दोनों समुद्र उसकी कोख है। ऐसा सुन्दर वर्णन बहुत कम स्थानों में मिलता है। छोटे छोटे जलाशय वरुणके ही अन्तर्गत है। सक्तका उत्तरार्द्ध अनृतवादी (झूठे) लोगोंको वरुणका शत्रु यदि अाकाशके परे भी चला पाशबद्ध (बेकाबू) करनेवाला जोरदार मन्त्र है। जाय तो भी वह वरुणसे मुक्त नहीं हो सकता। उक्त उत्तरार्द्ध इस प्रकार है- वरुणको सहस्र नेत्र (चर) हैं ! ये सब दिशाओं बृहन्नेषामधिष्ठाता अन्तिकादिव पश्यति । की रखवाली किया करते हैं। पृथ्वी पर तथा यस्तायन्मन्यते चरन्त्सब देवा इदं विदुः॥१॥ उसके परे भी ये सदा घूमा करते हैं। यस्तिष्टति चरतिं यश्च वञ्चति पृथ्वी और श्राकाशके मध्यमें स्थित तथा यो निलायं चरति यः प्रतङ्कम् । इनसे भी परे रहनेवाले प्राणियों पर वरुणकी द्वौ संनिषद्य यन्मन्त्रयते राजा दृष्टि रहती है। प्राणिमात्रके पलक गिरने तक तद् वेद वरुणस्तृतीयः ।।२।। का हिसाब बरुणके यहाँ रहता है। जैसे जुआरी उतेयं भूमिरुणस्य राज्ञ पासों पर दृष्टि लगाये रहता है उसी भाँति सब उतासो द्योवृहती दूरेअन्ता । विषयमै वरुण चौकन्ना रहता है।