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अथर्ववेद ज्ञानकोष (अ)१५६ अथर्ववेद -- - यद्यपि यह सत्य है कि अथर्ववेद संहिताकी और उनके विषयमें अद्भुत विचार पुराने हिन्द उपलब्ध प्रति ऋग्वेद संहिताके बादकी है किंतु लोगोके अथर्ववेदसे मिलते जुलते हैं। इसलिये इससे यह प्रकट नहीं होता कि इस संहिताके सव अथर्ववेदकी बहुतसी ऋचाओंके विषय. अमेरि- सूक्त ऋग्वेद सूक्तोके बादके हैं। केवल इतना ही कन इंडियनोंके वैद्यों अथवा तातारी शामनों और कहा जा सकता है कि अथर्ववेदके सबसे अंतिम अति प्राचीन जर्मन काव्यावशेषोंमें मिलनेवाले सुक्त ऋग्वेदके सबसे अंतिम सूक्तोंके पश्चात् रचे मसँवर्ग मंत्रोंके विषयोंसे बहुत कुछ मिलते जलते गये हैं। जिस तरह अथर्ववेदके बहुतसे सूक्त हैं। मसवर्ग मंत्र संग्रहमें एक सन्त्र है। वोडन अधिकांश ऋग्वेद सूक्तोंके वादके हैं उसी तरह नामक मान्त्रिकने वाल्डरके बछड़ेके मोच खाये यह भी निश्चित है कि अथर्ववेदकी अभिचार हुए पैरको निम्नलिखित मन्त्रसे ठीक कर दिया- ऋचाएँ ऋग्वेदकी यज्ञ संबंधी ऋचाप्रोसे पुरानी "हड्डीके साथ हड्डी, रक्त के साथ रक्त, अवयवोंके भले ही न हो, पर एक ही समयकी अवश्य हैं। साथ अवयव मिलानेसे एक जीव हो (परस्पर अथर्ववेदके बहुतसे सूक्त ऋग्वेदके पुरानेसे पुराने मिल) जाय ।" ठीक इसी आशयका एक मन्त्र सूक्तोंकी तरह प्राचीन और उसी अज्ञात प्राक- अथर्ववेद (४. १२) में पैर टूटनेके इलाजके इतिहास कालके हैं। 'अथर्ववेदकाल' कोई निश्चित सम्बंध है। काल नहीं है। ऋग्वेद संहिताकी तरह अथर्व । सं ते मजा मज्ज्ञा भवतु समु ते परुषा परुः वेदकके कुछ सूक्तोंके रचना कालमें कई शताब्दियों सं ते मांसस्य वित्रस्तं समस्थ्यपि रोहत ॥३॥ का अंतर है। इसीलिये अधिकसे अधिक यह मजा मस्ज्ञा संधीयतां चर्मणा चर्म रोहतु । कहा जा सकता है कि अथर्ववेदके अंतिम सूक्तों असृक ते अस्थि रोहतु मांस मांसेन रोहतु ॥४॥ को रचना ऋग्वेद सूक्तोंके आधार पर हुई है। लोम लोना संकल्पया त्वचा संकल्पया त्वचम् । डॉ. औल्डनवर्गका मत है कि-भारतवर्ष के । असृकतेअस्थि रोहतु च्छिन्नं संधेह्योषधे ॥ ५॥ अथर्ववेदके अति प्राचीन अभिचार गद्यमय थे अथर्व वेद ४,१२ और पद्यात्मक ऋचा और सूक्तोकी रचना ऋग्वेद । तेरे शरीर की मज्जायें इन टूटी हुई मजाओं के यज्ञसंबंधी सूक्तोंके आधार पर हुई है। पर से और अवयव इन टूटे (भग्न) वयवोंसे जड डॉ. विटंरनिटज इसे गलत कहते हैं। ऋग्वेदके जायँ । शरीर का नष्ट हुश्रा मांस और टूटी हड्डी विषय और कल्पनाएँ अथर्ववेदसे एक दम भिन्न फिर बढ़ जाय ॥ ३॥ हैं। ऋग्वेदकी और अथर्ववेदकी रचना भिन्न मजा में मजा मिल जाय । फटा हुआ चमड़ा हैं। एकमें (ऋग्वेद ) पंचमहाभूतात्मक बड़े बड़े फिर जुड़ जाय तेरे शरीरका नष्ट हुश्रा रक्त और देवता है. गायक उनकी स्तुति और प्रशंसा करते टूटी हुई हड्डी फिर पैदा हो और मांस बढे हैं- उनवी प्रसन्नताके लिये यज्ञ करते हैं। देवता (आ जाय)॥४॥ बहुत बलवान हैं विपत्ति के समय दौड़कर सहा. हे वनस्पति, नष्ट (गायब) हुए केश (बाल) यता करनेवाले हैं, उदारचित्तवाले हैं और अधि तेरे कारण आवे, चमड़ा जुड़ जाय, रक्त ओर हड्डी कतर आनंद और प्रकाश देनेवाले हैं। (अथव- बढ़े, इस प्रकार घाव (जख्म) ठीक होजाय ॥५॥ वेद ) दूसरेमें मनुष्य जातिको आपत्ति में फंसाने । अथर्व वेदका विशेष महत्व बढ़ाने वाले वाली शक्तियाँ और भय पैदा करनेवाले पिशाच कारण निम्नलिखित हैं। यज्ञ-यागादिक और ( भूत प्रेत) आदि पर उग्न मंत्र छोड़नेवाले या तत्वज्ञान सम्बन्धी विचारोसे दूर रह कर केवल उनकी मिथ्या प्रशंसा करके उनको शांत करनेवाले भूत, प्रेत, राक्षस आदिमें विश्वास करने वाले मांत्रिक दिखायी देते हैं। इस वेदमें वर्णित बहुत मनुष्योंके कैसे कैसे पृथक पृथक मत हैं इसको से सूक्त और उनके प्रयोगकी विधियाँ उन कल्प- जाननेके लिये अथर्ववेद एक अमूल्य साधन है। नाओंकी कक्षामें आती हैं जो कल्पनाएँ पृथ्वीकी अथर्ववेदके भिन्न-भिन्न सूत्रोको ध्यान पूर्वक पढ़ने एकदम भिन्न संस्कृत रखनेवाली जातियों में प्रच- पर दिखाई देगा कि मानव जातिके ज्ञानविकासके लित हैं और उनमें एक विलक्षण सादृश्यता इतिहासको जानने की इच्छा रखनेवाले पंडितोको दिखाई देती है। उत्तर अमेरिकाके पूर्व निवासी अथर्ववेदका ज्ञान प्राप्त करना कितना आवश्यक है। अफ्रीकाके नीग्रो, मलायाके निवासी, मध्य एशिया भैषज्य-सूक्त-अथर्ववेदका एक महत्वपूर्ण के मंगोल पुराने ग्रीक और रोमन श्रादि लोगोंकी विभाग उन मतोंका हैं जिनमें रोगोंको दूर करनेका जारण-मारण संबंधी कल्पनाएँ तथा मन्त्र तंत्र उल्लेख है। इन्हें भषज्य सूक्त कहते हैं। रोगोका