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प्रतिशत अस्सीमें पिलपिला हो जाता है। बहुधा दोनो पिराड ही खरब होते हैं और दाय क्रियाका आरम्म किसी अन्य भाग पड़ता है। कभी कभी पीछेकी अस्थियाँ भी पोली हो जाती हैं और यहाँ ही से इन पिएङौँमें भी रोग फैलता है। (२) कभी कभी दाय क्रिय न देख पड़ने पर भी यह केवल शुष्क हो जाते हैं और संकुचित होते जाता हैं। (३) पहले जलन होकर यह पिराङ शुष्क और संकुचित होते जाता हैं। (४) मुख्य पिङने कुछ भी दोश न होते हुए सहानुभूतिक मळाप्रंथिमें विक्रनि हो जाती है और तब रोग पूर्ण रुपसे दवा लेना है लक्श्ण-रोगीको धीरे कमजोरी बढ़ती जाती है। निन्मलिखित नये लक्श्ण क्रमशः शरीर में प्रगट होते हैं। ह्रदय-स्पन्दन श्रनियमित रुप से होने लगता है। धड़कन धीमी पड़ने लगती है। कभी कभी चक्कर आ जाता है। कभी कभी तो रोगी अचैतन्य अवस्थामें मर भी जाता है। रक्त सच्चारकीगती धीमी हो जाती है। जी मिचलाता है और वमन और दस्त होने लगता है। जब यह रोग शरीर में पूर्ण रूपसे व्याप्त जाता है तब साधारण जनता समभमें आने वाले बाह्च लक्शण दिखाइ देते हैं। वह लक्शण त्वचाका भूरा, पीला या काला होना है। हाथ,पैर,मुहँ आदि सदैव खुले रहने वाले भागोकी त्वचाका रंग शीग्र ही परिवर्तित होता है या स्वभवतः ही जो स्थान सदासे काले ही होने है जैसे बगल,स्त्नके चारों ओरका स्थान,धोती बान्धने वाला कमर का भाग (कटि) आदि ऎसे स्थानों पर त्वचाके रंगमें शीघ्रही परिवर्तन होता है। कभी कभी मुखके अन्दर अवथा अन्य स्थानोकी श्र्लेध्म-त्वचाका भी रंग बदल जाता है। रोगी का तापमान साधारन तापमान से कम होता है। यह रोग पुरुषों को अधीक होता है। इस रोग के शिकार धनिकोकी अपेक्शा निर्धन ही अधीक होते हैं। गरीबोंको पुष्ट खाद्य पदार्थ नसीब होते नहीं। इस कारण उन्हें क्श्य रोग हो जाता है। निक्शन-गर्मावास्था,गर्माशयअन्थि,उदरोपत्न ग्रन्थि, कुछ विविक्शित ह्रद्य रोग और (Ex ophthalmic Goitre) आदि रोगोंमें भी त्वचाका रंग इसी तरह बदलता है। श्रतएव प्रथम अवस्था में इस रोगकी ठीक ठीक पहचान होना कठीन है। सोमल (संखिया) भस्म और रौप्यादि भस्म खने से भी त्वचाका रंग परिवर्तित होता है। रक्त सहायता देती है। इस रोग का निश्र्वय करनेके लिए इस पिंङका श्रान्तर-रस:सत पेटमें प्रचिष करना चाहिये। यह रोगीके रक्त्त-सन्चालनकी गति शीघ्रही सुधारता है परन्तु स्वस्थ मनुष्य पर इस ऋियाका कोछ भी प्रभाव नहीं होता। उपचार-स्वास्थ्य-लाभके लिये श्रत्यन्त उध्योग-पुर्वक और सावधानीसे चिकित्सा करनी चाहिये। पौष्टिक भोजन अत्यन्त आवश्यक है। सौमल (संखिया) और कुचला आदिसे मिश्रित पाचनको बढाने वाली पौष्टिक औषधियोंका ओपयोग करना चाहिये। रोगीको खुली और स्वच्छ वायुमें रखना लाभकारी है। इस पिणडके अनेक प्रकर के सत बाजार में बिकयते हैं। उनके प्रयोगले स्वास्थ्यमें व्रद्धि होगी। आर्यवैधक शास्त्रमें इस गेगका वर्णन नहीं है परन्तु यह रोग भारतवर्षमें भी कहीं कहीं होता है। अतएव वैध्यगणोको इसकी ओर ध्यान देना आवश्यक है। ऑडीलेड- यह दक्षिण अस्ट्रेलिया की राजधानी है। टोरेंस नदीके मुहाने से ७ मील भीतर इसी नदी के किनरे यह शहर बसा हूआ है। यह दो भागों में बटा हुआ है। एकमें बस्ती है ओर दूसरेमें औधोगिक कारखाना हैं। इन दोनों भागोंके बीच में एक छोटासा जंगल है जिसमेंसे होकर टोरेंस नदी बहती है। शहर के रास्ते बहुत सुन्दर और चौडे हैं। इमारतें और बाग देखने योग्य हैं। १६२७ ई० में जनसंख्या १२५३२७ थी। ऑडीलेड विश्र्वविध्यालय १०७६ ई० में खुला। इसमें शिल्प, क्रषि, खनिजविध्या आदि भिन्न भिन्न शास्त्रों की शिक्षा देनेवाले विध्यालय हैं। शहरमें श्रनेक सुन्दर मूर्तियाँ (Statues) हैं। कर देनेवालोंकी ओरसे चुना हुआ एक मेयर और छः ऑल्डर-मैन (Aldermen) नगर का इंतजाम करते हैं। मिट्टी और लोहेके काम करनेवाले कारखने यहाँ बहुत हैं। शराब और साबुन बहुत वय्यार होता है। अस्ट्रेलियाका यह केंद्रीय शेयरमार्केट है। रेल द्वारा मेलबोर्न सिडनी, ब्रिसबेन आदि स्थानोंका संबंध है। गर्मीमें यहाँ बहुत गरम हवा बहती है। परन्तु समुद्र और पहाड पास में ही होने के कारण गरमी असहनीय नहीं होती। यहाँ वर्षाका औसत २० इंच है। इस नगरकी स्थापना १०३६ ई० में हुई।