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हैं। इसकी उत्पति मुख्यातः भारतवर्ष में और विशेषकर बंगाल में होती है। मिश्र, ईरान ओर अफगानिस्तान में भी पैदा होती है। यूरोप में यह हाल ही में गई है। फ्रांस के राजा चौदहवें लुई के राजवैध्य पोमेटइन्ने ने लिखा है कि अच्छी अजवाइन या (Alexandria) सिकन्दिरिया से आती है।

   उत्पति- भारतवर्ष में यह अकतूबर या नवंबर में आई जाती है। पानी के किनारे इसके रोप (पेड़) लगाते हैं। हर एक पौदे में छः इंचका फासला रखते हैं। अच्छी खादकी उतनी जरूरत नहीं है, पर पानी काफी चाहिए। अजवाइन बागों में होती है। पेड़ हाथ डेढ़ हाथ ऊँचा होता है। इसका अर्क निकाला जाता है जिसे अजवाइन का सत कहते हैं। मध्यभारत में इंदौर के पास यह सत बहुत मिलता है। सत निकालने के नए ढ़ंग के कारखाने कलकत्ता या बंबई में हैं। बंबई इलाके में हर साल ५००-६०० एकड़ में यह बोई जाती है। मध्य प्रांत में नेमाड़, मद्रास में नदियाल घाटी (Valley) में और तिनावल्ली जिले में भी पैदा होती है। गुजरात के खेडा जिले में भी यह ज़ीरे के साथ बोई जाती है। ज़ीरा पहले तय्यार हो जाता है और ३०-४० दिन बाद अज-इन भी पक जाती है। पूना जिले में मूँगफली के साथ इसे बोते हैं। जब मूँगफली पैदा होने लगती है तो इसका बिया बो दिया जाता है। औसत एक एकड़ में दो मन के करीब निकलती है। बंबई की अजवाईन के खरीदार मिस्त्र, जर्मनी और अमेरिका हैं। अजवाइन का अर्क निकालने पर भी उसमें १५ से लेकर १७ फीसदी ओजस (द्रव्य) रहता है और इसकी दूनी मात्रा में चिकनाहट रहती है, इसलिए इसकी सीठी मवेशियों को खिलाई जाती है। 
    तेल- तेल साफ और बेरंग का होता है। कुछ दिन बाद जरा सा पीलापन आ जाता है। इसकी सुगंध अजवाइन ही की तरह होती है। स्वाद में जरा सी तिताई होती है। पेटकी बीमारी में तीन बूँद शकर या गोंद के पानी के साथ देना चाहिए। 
    अजश्रग्डी-(मेढासिंगी) इस वनस्पति की लताए होती हैं। इसको संस्कृत में मेवश्रंगी मराठी में मेंढशिंगी, हिन्दी में अजयश्र्ग्डी या मेढ़ासिंगी इत्यादि कहते हैं। इस वनस्पति का रस दूध के समान स्वच्छ होता है। इसकी लता में कांटे होते हैं और फल इसका मेढा के समान होता है। मुख्यातः इसका उपयोग नेत्र-रोग में किया जाता है। इसकी लताए खंडाला-घाट अथवा अन्य पहाड़ों पर बहत पायी जाती हैं। यह कफको नाश करती है और वमनद्वारा बाहर निकाल देती है। इसकी छाल भी अनेक ओषधियाँ बनाने के काम में आती है। (पदे-वन-स्पति गुणदर्श)
    अजामिल-पूर्वीय कन्यकुज्ज देश का रहने वाला एक ब्राह्मण हो गया है। यह अपने माता पिता तथा घिवाहित स्त्री का त्याग कर एक शूद्र स्त्री के साथ रहने लगा था। इसने अपना लग-भग सम्पूर्ण जीवन उसी के साथ भोग विलास में व्यतीत कर दिया था। एक समय यह अपने कनिष्ठ-पुत्र नागयण को पुकारने की इच्छा से जब उसके समीप गया तो उसने विप्णुदुन और यम-दूत को अपने ही विषय मेँ संवाद करते सुना। इसे सुनकर उसे घोर पश्चाताप हुआ और कठोर प्रायश्चित इच्छा से उस शुद्र वर्ण स्त्री तथा उसकी सन्तति का परित्याग करके वह गंगा के तीर पर आकर नियमपूर्वक संयम के साथ भगवत-भजन करने लगा। इससे अंत में उसे उत्त्म लोक प्राप्त हुआ (भाग० पष्ठ अ० १-२)
     अजात शत्रु- (लगभग ई० पू० ५५४-५२७) यह शिशुनाग वंशका छठवाँ राजा था। 
     यह लगभग ई० पू० ५५४ में मगध देश की गद्धी पर बैठा। (देखो बुद्धोचर जग० पृ० १३३, १७१-१७२ और १७३) इसके अन्य नाम कुणिक और कुणीय भी हैं। जिस प्रकार से इसे राज्य प्राप्त हुआ उस विषय में इतिहासकारों मतभेद है। जैन-दन्त-कथा के अनुसार बिम्वसारके वृद्धा-वस्था प्राप्त करने पर उसका पुत्र (अजातशत्रु) उसकी आशानुसार राज्य का मालिक हुआ। ब्राहम्ण तथा बौद्धों का मत है कि राज्य के लोभ से अपने पिता का वध करके वह राजगद्धी पर बैठा था। पुगण की वृद्ध कथा में वर्णित है कि गौतम-चुद्द के शालक देवदत्त के चिढ़ाने पर यह कृत्य किया गया था (हीस डेविडस-बुद्धिस्टिक इणडिया)। वी० स्मिथके मतानुसार अजातशत्रु की पितृवध की कथा बिल्कुल बनावटी है (आक्स फोर्ड हिस्ट्री आॅफ इणडिया)। बिम्ब-सार के समय में वर्धमान म्हावीर ओर गौतमबुद्ध दोनों ही महान धर्मप्रचारक अपने अपने धर्म का मगधदेश में प्रचार कर रहे थे। महावीर अजात-शत्रु की माता के कुल में से था। एेसा अनुमान किया जाता है कि महावीर तथा गौतमबुद्ध दोनों ही अजातशत्रु के समय में परलोक सिधारे होंगे।