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॥५॥ मानो वाही रंग रंगे जानो यह बात करी उर अति । उरे सुख भयोई असंतनि को तब तो बिचार मन मा बैठी नृप सभा जहां गए पे न मान कियो कियो र ब्स्कायो है। राजा जिय सोच पयो कसो कहा है पंडा पांव जरत बचायो है। सुनि अधिरज भयो लाये सुधि कही अतू सांची ही सुनायो है। कही बात वह सांची भई अांच लागी लिये अब कहो कर ही बनत चले सीस तृन बोझ भारी गरे सो कुल्लारी भीजिये। निकसे बजार वेके उारि ई लोक लाज. छिन छिन तन कीजिये। टूरि ते कबीर देषि के गए उठि आगे कन्यो गरि मति रीझिये। देषिके प्रभ अभाव द्विज आयो पातिसाह सों सिकंदर सो नाम दे संग माता मिलाय लई जायके पुकारे जु दुषायो स रे पकरि वा कों देषो मे मकर के सो अकर मिटाउं । है। प्रानि ठाठे किये काजि कल्त सलाम करो जान नों राम गाठ पाव है। बांधिके जंजीर गंगा नीर मांभ तीर ठाले कहें जंत्र मंत्र श्रावही। लकरीन माझ रा ई मानों भई देह कंचन लजावही । विफल उपा प्राय नये तब मतवारी लाथी प्रानिके कावही । श्री चिंघारि भाजि जाय प्राय श्रागे सिंह रूप बैटि देष्यो पातसाद भाव कूदि पखो गले पाव देषी कर सब लोग है। प्रभु पे बचाय लीजे लमे न गजब कीजे