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इतना बात सुन जुरासिंधु बोला कि महाराज श्राप ज्ञानवान हैं यो सब बात में जान में तुम्हें क्या समझाउं जो सानी पुरुष हैं सो हुई बात का सोच नहीं करते क्योंकि भले बुरे का करता और ही हे मनुष का कुछ बस नहीं यह पर बस पराधीन है। जैसे काठ की पुतली को नशा जों नचाता है तो नाचती है ऐसे ही मनुष करता के बस है वह जो चालता है सो करता है। इस से सुख दुख में लष शोक न कीजे सब सपना सा जान लीजे। में तेईस तेईस अक्षोल्ली ले मथुरा पुरी पर सत्रह बेर च6 गया और इसी कृष ने सत्रह बेर मेरा सब दल लना में ने कुछ सोच न किया और अठारवीं बेर जद इस का दल मारा तद कुछ हर्ष भी न किया। यह भागकर पनाउ पर जा चहा में ने इसे वहीं फूंक दिया न जानिये यह क्योंकर जिया। इस की गति कुछ जानी नहीं जाती। इतना कह फिर जुरासिंधु बोला कि महाराज अब उचित यही है जो इस समय को टाल दीजे। कहा है कि प्रान बचे तो पीछे सब हो रहता है जैसे लमें लुबा कि सत्रन बार लार अठावीं बेर जीते। इस से जिस में अपनी कुशल होय सो कीजे श्री लठ छोड दीजे। जद जुरासिंधु ने ऐसे समझायके कहा तद विसे कुछ धीरज लुना श्री जितने घायल जोधा बचे थे तिन्हें साथ ले अछता पछता जुरासिंधु के संग हो लिया। ये तो यहां से यों हारके चले और जहां सिसुपाल का घर था तहां की बात सुनों कि पुत्र का प्रागमन बिचार सिसुपाल की मा जो मंगलाचार करने लगी तो सनमुख छींक लुई श्री दास्नी अांख उस की फटकने लगी। यह अशुगन देख विस का माथा