पृष्ठ:Garcin de Tassy - Chrestomathie hindi.djvu/११७

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॥११॥ जिन निरास करि उरई बूरत लेलु उबार । चौपई। उमडो बिस्ल समुद अधिकाई। वा की लहरि सही नहि जाई॥ मेन सकल मे मंद चलावे। बिन प्रीतम कोउ निकटि न श्रावे॥ बिस्ल समुद अधिक अति पाई। बूडि मरे पावे नहि थाही ॥ 'घर अरु सेज टूभर भई सोई। रजनी सकल सिराउं रोई॥ कबळू प्रेम मगन तन दहई। कबहू हाय हाय करि रहाई ॥ कबनूं चित व्याकुल भई रोवे। कबडूं प्रेम मगन भई सोवे॥ चित्ररेष गहि बाह उचाई। करि मनुहारि लिये ले लाई॥ होला। चित्ररेषा सिके कहे प्रेम प्रीति निजु पागि। सुनो कुंवर अब कुवरि मिलि बूझि बिरल की अागि ॥ चोपई। उठी कुवरि लसी मन माहीं। तुम प्रीतम गहि ल्यावो बानी ॥ चित्ररेषा तब पहुंची तहां। राजकुंवर बैठे हैं जहां ॥ कही तबे कुंवर पे बाई। राजकुंवरि मंदिर नहिं पाई॥ सुनी बात गिरि पखो तुरंता। कवन काज कीना भगवंता॥ सूके अधर बदन कुमिलाई। भयो अकाज सषी म जानी॥ चित्ररेषा तब कर टक टोरे। प्रान नही सब घर झकझोरे॥ निकटि सषी बैठी पछिताई। जानो घरी काल की प्राई॥ दोला। बिकल भई तब देषिके बढ़ते भई निरास।