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लंका ३२६ देश पर अपना अधिकार जमाया । ६ वष तक यह मदरास प्रान्त का एक अंग रहा । सन् १८०२ में यह अँगरेज़ो का उपनिवेश बन गया । इस द्वीप के वर्तमान अधिवासी कई जातियों के रक्त-सम्मिश्रण के परिणाम हैं । इसमे मूर, पुर्तगाली, अँगरेज़, डच, द्रविड़ तथा सिहली रहते है । इस द्वीप में चाय तथा फल आदि बहुत पैदा होते हैं । यहाँ सस्ते मजदूरो की कमी के कारण मालिको ने भारत के दक्षिणी प्रान्तो से यहाँ मजदूर बुलाये । क़रीब दस लाख भारतीय लंका मे बस गये और मजदूरी करने लगे। इनमें से अधिकांश चाय आदि के बीचो में मजदूरी करने लगे और सिर्फ २॥ लाख सरकारी विभागो, बन्दरगाहो, म्यूनिसिपेलिटियो, स्कूलो तथा अस्पतालो मे नौकर होगये । भारतीयो ने अपने कडे परिश्रम से इसे “पूर्व का स्वर्ग बना दिया। सन् १९२६. और १९३० मे, ससारव्यापी आर्थिक-सकट के समय, सिंहल द्वीप वालो ने प्रवासी भारतीयो के साथ भेदभाव का बर्ताव शुरू कर दिया । वहॉ की सरकार ने भी बहुत-से ऐसे कानून बनाये जो प्रवासी भारतीयो के लिये हितघातक सिद्ध हुए। बग़ीचो मे काम करनेवाले भारतीय मज़दूरो को अधिकारो से वंचित कर दिया गया । उपद्रव तथा हडताले हुई । भारतीयो की दूकानो का बहिष्कार किया गया और भारतीय व्यापारियों के साथ अनुचित व्यवहार किया जाने लगा । सिहलवासियो को विशेष रिआयते दी गई । सरकारी विभागो मे काम करनेवाले दस हजार भारतीयों को भारत वापस भेज जाने की सरकार ने आज्ञा दे दी । लंका से प्रवासी भारतीयों को निकाले जाने की व्यवस्थापिका सभा मे कानून बनाने की तय्यारियों कीगई। तब गवर्नर को विवश होकर विरोधी दल को सावधान करना पडा। गवर्नर की इस कार्यवाही के विरोध स्वरूप सर बैरन जयतिलक ने व्यवस्थापिका सभा में असन्तोपमूचक प्रस्ताव उपस्थित किया। प्रवासी भारतीयों को निकालने-सम्बन्धी आवास तथा रजिस्टरी मसविदा' ४ मार्च १९४१ को राज्य परिषद् में उपस्थित किया गया और दो वाचन के बाद एक स्थायी समिति के सुपुर्द कर दिया गया। समिति के भारतीय सदस्यों ने इसका बहिष्कार कर दिया और योरपियनों ने भी मसविदे