पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/९

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गुप्तचरों ने 'अभिनव भारत' की हलचलों को दबा देने की चेष्टा चलायी थी। ईस से फ्रान्स में भी अिस ग्रंथ की छपाई न हो सकी। किन्तु क्रांतिकारी भी कच्ची मिट्टी के नहीं बने थे। कई चालें चलकर उन्हों ने हॉलंड की एक मुद्रण संस्था को अंग्रेजी पुस्तक छापने पर राजी कर लिया और अिधर क्रातिकारियों ने जोरदार अफवा उडायी, कि फ्रान्स ही में पुस्तक छप रही है। अंग्रेजी खुफिया विभाग दंग रह गया। फ्रान्स के सभी मुद्रणालयों को उन्हों ने छान मारा और अिधर हॉलंडमें, ब्रिटिशों को सुराग मिलने के पहले ही, 'पुस्तक छप गयी। उस संस्करण की सभी प्रतियाँ हॉलंड से फ्रान्स में पहुँचायी गयीं और गुप्तरूपेण उनका प्रसार करने के लिये छिपा रखी गयीं।

अिस ग्रंथ की पाण्डुलिपि हॉलंड पहुंचने के पहले सावरकरजी की प्रामाणिक जानकारी तथा क्रांतिकारी भावगति से पूर्ण लेखन के प्रभाव की कल्पना से ब्रिटिश तथा भारतीय ब्रिटिश सरकार पतलून में कॉपने लगीं। मुद्रण-भाषण-लेखन स्वातंत्र्य का गला फाडकर पुकार करनेवाले अंग्रेजों के शासकों ने, जो पुस्तक अबतक छपी नहीं थी और यह बात निश्चितरूपसे वे जानते थे, उसपर पाबंदी लगा दी। प्रकाशन के पहले ही पुस्तक पर मनाही! अिग्लंड के समाचारपत्रों ने अिस अन्याय पर सरकार को खूब रगेदा। मुद्रण-स्वातंत्र्य का गला घोंटनेवाली मनाही आज्ञा जब सावरकरजी पर जारी की गयी तो अन्होंने लंदन टायिम्स में पत्र लिखकर सरकार पर कडी आलोचना की भरमार की! अन्होंने लिखा था:-स्वयं सरकार कहती है, कि मूल पाण्डुलिपि छपने को कहाँ गयी है, उसे वह नहीं जानती। तो फिर सरकार किस सबूत पर कहती है, कि यह पुस्तक राजद्रोह की प्रेरणा करनेवाला भयंकर साहित्य है, और वह भी प्रकाशित होने के पहले? जिसके लिये दो ही तर्क सम्भवनीय हो सकते हैं-या तो, सरकार के पास ही यह. पाण्डुलिपि होनी चाहिये, या तो न होनी चाहिये। यदि हाँ, तो वैध उपाय यही था, कि सावरकर जी को राजद्रोह के अभियोग में न्यायालय के सामने खडा किया जाय; यदि ना, तो अनधिकार तथा ड