पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/८६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

ज्वालामुखी] [प्रथम खड । mmmmmmmmmmmmm... .. . .. .. ....... ... . .m... स्वर्गका साधन है । स्वर्ग के रास्ते जाना हो तो पहले दासता की श्रृंखला को तोड देना चाहिये । श्री समर्थ रामदास ने शिवाजी, तथा श्री प्राणनाथ महाराज ने छत्रसाल को स्पष्ट शब्दोंमे यही उपदेश दिया था: यह व्यावहारिक वेदान्त है। धर्म उसी की रक्षा करता है, जो धर्मकी रक्षा करे और धर्म की रक्षा चाहनेवाले को श्री रामदासस्वामीने दाई सौ वर्ष पहले यह महामत्र दिया था 'मरना सीखो शत्रु को मारते हए और मारते मारते अपना (स्व) राज ले लो।' १८५७ में पराधीनता से । • कुचली हुई प्रजा के हृदय मे यही महामत्र गूजने लगा था। जिन्होंने यह अप्राकृतिक और अन्यायसे उत्पन्न पराधीनता को भारतके गले मढा उन्हींने, न केवल भारतमे, वरंच सारे ससारमें धर्मपर हमला करनेका प्रारंभ सबसे पहले किया । कौनसा धर्म है जिसने अन्याय की निंदा न की हो ? किन्तु इस मूक निदाकी पर्वाह न करते हुए भारतमें पग धरनेके क्षणसे १८५७ के भीपण काण्डतक हिद और मुसमानोके धर्मको रौंध डालनेका ढंगदार और लगातार जतन फिरगी शत्रुओंसे किया गया है । आफ्रिका और अमरीकाके मूल वन्य जातियोको ईसाई बना लेने की अपूर्व विजयसे इग्लैंडकी गर्दन कुछ तन गयी थी; और उससे उन्हें बलवती आशा थी कि भारतमे भी ईसामसीहका क्रूस भारतभरमे ऊँचा उठेगा । अंग्रेजोको तो पूरा विश्वास था कि भारतके निवासी एक बार पश्चिमी सभ्यताकी झलक पर ऑख उठाओंगे तो, बस, वे अपने धर्मपर लजित होगे और उसे त्याग देंगे, वेद और कुरानसे अंजीलको अधिक पवित्र मानेंगे; मंदिर और मस्जिदें खाली होकर गिरजाघरमं समा जायेंगे । इस कथन का प्रमाण उन्नीसवी सदीके प्रथमार्धमें हर अंग्रेजके लेखन, भाषण या सामाजिक साहित्यमे स्पष्टतया मिल जाता है। स, १८५७में ईस्ट इडिया कंपनीके प्रमुख सचालक श्री. मॅगल्सने " हाउस ऑफ कॉमन्समें" कहा था: " भारतके एक छोरसे दूसरे छोर तक ईसाकी विजयपताका गर्वसे लहरानेके ही लिए भारतका विशाल साम्राज्य परमात्माने हमारे हाथ सौपा है। इसीसे समूचे भारतको ईसाई बनाने के इस महान् कार्यमें किसी तरह ढीलापन न करते हुए हर एक अपनी शक्तिभर जतन करे!"