पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/५२१

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और संताजी और धनाजी से उत्तोलित स्वराज्य-ध्वज तात्या टोपे अभीतक फहरा रहा था।उत्तर भारत में पाया गया सराहनीय मतैक्य,साहस तथा द्र्ढ संकल्प,यदि दक्षिण में भी पाया जाता,तो समस्त इग्लैढ भारत में लडने आता तो भी जरीपटका-पेशवाओं का झण्डा-कभी नीचे न झुकता।जरीपटका जब आकाश में लहराता है तब उस के प्रेम और गर्व का अनुभव न करनेवाला शुध्द बीज का मराठा ढॅढने पर भी नहीं मिलेगा।१८५७ में भी वह वीरता सभी मराष्टों के ह्र्दय में स्वाभाविकतया जाग उठी थी।किन्तु ढुलमुल नीति और दृढ निश्र्वय का अभाव-उन दो रोगों ने वह वीर भाव, वह प्रेरणा गर्भ ही में मार डाली। क्रांति की योजना जब उत्तर भारत में प्रगति कर रही थी, तब क्रांति का सदेश लेकर दक्षिण भर की रियासतों में तथा हर गॉंव में क्रांतिदूत प्रचार कर रहे थे।सातारे के रंगो बॉपूजी कानपूर में नानासाहब के साथ लिखापढी कर रहे थे। पुणें,धारवाड,बेलगाँ,हैदराबाद आदि स्थानों की भिन्न भिन्न पलटनों में घुरोहित,मौलवी तथा उत्तर भारत के विद्रोहियों के प्रतिनिधि क्रांति की मशाल उठाकर गुप्तरुप से संचार कर रहे थे। और मैसूर से ठेठ विध्य पर्वत तक 'उत्तर में बलवा होते ही साथ साथ यहॉ भी बलवा करेंगे" वाली शपथें की गयी थीं। दक्षिण, बलवा करने को न भूली;किन्तु हाँ, उत्तर में बलवा होते ही साथ उठने की बात भूल गयी। उत्तर में अकल्पनीय विधुतवेम से क्रांति का उत्थान हुआ और वह भी इस निर्धार से कि 'मारें या मरें'। तुरन्त विद्रोह करने के बदले दक्षिणवाले देखते रहे,कि उत्तर की लडाई का ऊट किस करवट पर बैठता है। क्रांति के जोखों के समय में एक क्षण जीवन मरण का निर्णय कर देता है। दोनों ओर से उस में बाटा होता है-उतावलेपन तथा देरी करने से। दुविधा के उसे क्षण में,क्षमता रखनेवाला व्यक्ति जैसा महूरत चुनता है, जिस में तेज और धैर्य से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त हो। क्रांति अंकगणित के नियमों पर नहीं चलती। मानव के ह्र्दय में होनेवाले आत्मिक अढ्भुत सामर्थ्य केबूते पर क्रांति सफल होती है; अकर्मण्य के लचरपन से वह ठंढी पड