पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४९०

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maa अग्निप्रलय ] ४४८ [तीसरा खंड और झाँसी पर तोपोंसे आग बरसायी । जिस तरह दोनों ओर की चढालियाँ ठंढी पड़ गयीं। शिवाजी के मावले वीरों या कुंवरसिंह के चुनन्दे सूरमाओं के समान अक बार भी जोरदार चढामी होती तो युनियन जैक तथा अस के अनुयायियों की लाशों के ढेरों पर गिद्धों की दावत होती। किन्तु हाय ! कायर कहीं के! आगे बढ़ने में हिचकिचातें हैं। अिसे क्या कहें, नीच विश्वासघात या घृणित कायरता? तोपों से अक भी गोला न चला। सेना और सेनापति को बुरी तरह हार कर भागना पड़ा। अिस गडबड में असीम युद्धसामग्री अंग्रेजों के हाथ लगी, तात्या की सभी तो घरी रहीं; और भगदड में पंधरह सौ मारे गये। मेक इजार पाँचसो भागते हुओ मरे ! बुद्रू और पागल कहीं के ! भागते हुओ कायर की मौत मरने की अपेक्षा तुम यदि हयू रोज पर हमला करते तो भी रोज का अस की सेना के साथ सफाया हो जाता और तुम वीर हुतात्मा बन कर अजरामर कीर्ति के धनी होते ! खैर, परमात्मा तुम्हे क्षमा करे ! और न सही, हम तुम पर तरस खाते हैं। कमसे कम तुम स्वाधीनता के काय में मारे गये हो। हमारे देशभागियों को तुम्हारी मृत्युसे मितना तो पाठ अवश्य मिलेगा, कि जीने के लिये जो भागते हैं वे मारे जाते हैं और मौत को गले लगाने के लिअ जो रणमैदान में झूझते हैं वे जीवित रहते हैं! और मृत्यु को ललकारते हुमे रानी लक्ष्मीबागी झूझ रही थी। तो फिर अिन सरदारों, ठाकुरों और सिपाहियों ने अकाक क्यों कर लाचारी दिखायी ! नौ दिन और नौ रातें आग बरसाती तोपों के सामने तुम डट कर खडे रहे; तुम्हे आशा थी कि तात्या टोपे तुम्हारी सहायता को जल्द ही दौड पढेगा । जब वह आया तो तुमने आनद के नारे लगाये। १ अप्रैल को तात्या की हार हुी और केवल तुम्हारा वह मानंद ही नहीं, विजय की आशा भी मिट गयी। जिस रसद को, विश्वासघाती शत्रु के हाथ से छीनने के लिये हजारों सैनिकों का बलिदान देना पडा, वह रसद अनायास गोरों के हाथ लगी तात्या की तो और गोलाबारूद भी तो शत्रु के हाथ लगी है; यह सत्य है ।। फिर भी यह निराशा क्यों ? विजयी होकर जीवित रहने, तुम्हारा शत्रु न दे,