पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४६०

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अनिमलय] ४१८ [तीसरा खंड तो अब वह पवित्र पर्व आ चुका है । अब तुम आँखें बंद कर सकते थे। जरा से जर्जर हो कर नहीं, स्वातंत्र्यसमर में मातृभूमि के लिओ झगडते हु शरीर पर हुसे गहरे वारों से तुम्हारा जड शरीर अब निष्प्राण हो रहा है। पंचभूतों में विलीन हो कर संसार की मूल शक्ति में-मिल जाने का क्षण आ गया! घन्य हो ! तुम्हारी मत्यु भी तुम्हारी जीवनी के समान अदात्त और अद्वितीय हो! स्वतंत्र राष्ट्र के विजयी ध्वन के नीचे मृत्यु ! सच्चे देशभक को जिस से अधिक विलोभनीय और पवित्र क्या होगा? श्री कुँवरसिंह का व्यक्तित्व की पहलुओं से प्रभावपूर्ण है । साहसपूर्ण वीरता और अभिजात चरित्र से असकी सेनामें भी शौर्य तथा अनुशासन अपने आप पैदा हुसे थे । किसी राष्ट्र के पुनरुत्थान के झगडे के नेता का व्यक्तिगत जीवन अस के सार्वजनीन कर्तृत्व के समान ही महान तथा विशुद्ध होना बहुत कम पाया जाता है। किन्तु कुंवरसिंह में महान् चरित्र तथा महान् कर्तत्व का अपूर्व संगम दीख पड़ा । अस के सैनिकों पर असका जितना प्रभाव था कि असके आदरयुक्त डर से असके सामने हुक्का पीने की हिम्मत कोजी भी न करता था। सत्तावन के क्रांतियुद्ध में रणनीति तथा युद्धकौशल में कुँवरसिंह के जोड का कोसी वीर न था। क्रांतियुद्ध में वृक-युद्ध (गेरिले वार फेअर ) का महत्त्व सब से पहले असीने जाना। शिवाजी महाराज के वृकयुद्धतंत्र के दाँव पेंचों का पूर्णतया और समझकर अनुकरण करनेवाला वही अक मात्रा वीर था । तात्या टोपे और कुंवर सिंह १८५७ के क्रांतियुद्ध में अग्रसर अिन दो सेनापतियों ने वृक-युद्ध-पंडित के नाते जो काम कर दिखाये हैं अनका तुलनात्मक परीक्षण किया जाय तो कुबरसिंह को प्रथम स्थान देना पडेगा । यह मही है कि वृक-युद्ध के विध्वंसक भाग में तात्या टोपे अपना सानी नहीं रखता था, किन्तु कुँवरसिह विध्वंसक तथा विघायक दोनों भागों का अपयोग करने में सिद्धहस्त था। अपनी सेना का पूरा सफाया करने या शत्र को नयी सेना खडी करने का मौका रंच भी तात्या टोपे न देता था ! किन्तु ये दोनों बातें शत्रु को न करने देकर भी कुँवरसिंह अपर से पूरी तरह शत्रु को इराता था; और असी का सफाया करता था । वृकयुद्ध में अन्तिम