पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४६

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FIRN S HAMSMara अध्याय २ रा कारणों का सिलसिला यदि यह बात सच है कि १८५७के रणक्षेत्रपर इस समस्याका निर्णय होनेवाला था कि उत्तर में हिमालय तथा दक्षिणम महासागरसे परिसीमित यह आर्यमही पूर्णतया स्वतंत्र रहे या नहीं, तो १७५७के उस दिनसे, जेस दिन यह समस्या पहलेपहल सामने आयी, इस कारण-पक्तिका प्रारंभ होता है। पहलेपहल, पलासीके रणक्षेत्रपर, खुलमखुल्ला इस समस्याकी चर्चा हुई कि हिंदुस्थान अंग्रेजों के अधीन रहे या नहीं। उसी दिन और उसी रणक्षेत्रम-जहाँ इस समस्याकी पहलेपहल चर्चा छिडी-क्रांतियुद्धका बीज बोया गया। पलासीकी घटना न हुई होती तो १८५७का युद्धभी लडा न जाता। पलासीकी वह घटना सौ सालकी पुरानी हो चुकी थी फिरभी भारतियोके अंतःकरणमें उसकी याद सदाही जागृत थी। उसका प्रमाण देखना हो तो उत्तर भारतमैं- २३ जून १८५७ के महाभयंकर किस्सेको स्मरण करना चाहिए! इस विशाल भूखंडमे, पजाबसे कलकत्तेतक जहाँ कहींभी खुला मैदान हो वहॉ, सहस्र सहस्र कातिकारी एकही समयमें कई रणमैदानोंमे, सूर्योदयसे सूर्यास्तपर्यंत, “आज हम पलासीका बदला लेंगे" इस प्रकार प्रकट आव्हान देकर अंग्रेजोंके साथ भिडनेका दृश्य दिख पड़ता है। पलासी की युद्धभूमिपर हिंदुस्थानने स्वाधीनता के लिए फिरसे एक संग्राम करने की सौगंध ली; तो, मालूम होता है, इंग्लभी मानो उस