पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४३७

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वाली बेगम के साथ घेरनेवाली अंग्रेज़ सेना का व्यूह तोडा कर वे कब के छटक गये थे । जब अंग्रेज़ ठेढे दिल से लखनौ में घुसा दिखायी पडा । लखनौ का पतन और अंग्रेज़ि सगीनों का तांडव होने की कल्पनाइ उसे विष के समान घ्रुणित मालूम होती थी । सो, उसने अपने शिबिर से लखनौ नगर में घुसने की चेष्टा शुरू की । अपने राजा के अपमान से चिढ कर , जान हथेली में लिखे, स्वदेशभक्ति से पागल यह मौलवी अहमदशाह शहादगंज में डट गया । जिस से इतिहास को लिखना पडेगा -'लखनौ झूझते हुए पडा ।'शत्रुने सारे नगर पर कब्ज़ा जमा लिया था । फिर भी मौळवी भी-मँजिनि के रोम में चिपकने के समान-लखनौ में रहा;जब सब क्रांतिकारी सेना लखनौ से निकल गयी थी और जब अंग्रेज़ पलटनें वहाँ आतंक ढा रही थीं , तब निरशा के बल से झूझते हुए यह अहमदशाह वहाँ डटा था । मँलेसन कहता है;-'शहर में भी कुछ काम बाकी था ; वह अनइद हठीला विद्रोही-नेता मौलवी फिर लखनौ आया था ; और ठीक उस के मध्य में , शहादतगंज में, दो तोंपें और पूरी तरह किलाबंदी की हुइ एक इमारत लेकर अंग्रेज़ ललकारता हुआ वह खडा था । लखनौ की चटाइ के पहले ही दिन बेगमकोटी को जीतनेवाली पळटन के बचे लोगों के साथ लुगार्द को , दि २१ को , उस मौलवी को भगाने के लिये भेजा गया । उस के साथ १३ वीं हाइलडर और निर्घार का परिचय राइफल पलटनें थी । आज के समान चीमडापन और निर्घोर क परिचय इस के पहले बागियोंने कभी न दिया था । उन्होंने बडी वीरता से मुकाबला किया और इपारे कयि लोगों को मारने तथा कइयों को घायल करने पर ही उन की हार हुइ। बस , येह लखनौ की अंतिम लडाइ थी !