पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/४२

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ज्वालामुखी]. प्रथम खंड 'डर या दवाव से सच्चे भावों का उच्चारण करने में किसी तरह रुकावट न होनेसे, राष्ट्रके अंतःकरण की सच्ची पनिव्वनियाँ इन घोषणाओं मे निनादित हो रही थीं, इसमें तनिक भी सदेह नहीं! सो, यह कहना पडता है, कि 'स्वधर्म और स्वराज्य' की प्रचंड वीर गर्जना-इस क्रांतिमें 'शस्त्र उठोनेवाले सभी वीर श्रेष्ठ थे'-अपनी उदात्तता को डकेकी चोटपर संसार -को सुना रही है। किन्तु, उपर्युक्त दो सिद्धान्तोंको, एकदूसरेमे भिन्न या पूर्णतया स्वतत्र थोडेही माना गया था? कमसेकम पौर्वात्योको तो ऐसा कभी नहीं लगा कि स्वधर्म और स्त्रराज्यका एकदूसरेसे कोई नाता नही है। मॅझिनी के कथनानुसार, पौर्वात्य मन, इसी परपरागत और सपूर्ण श्रद्धासे, मानता आया है कि स्वर्ग और पृथ्वीके बीच कोई भी लॉघनेमे महान् कठिन किलाबंदी खडी नहीं है; उलटे, स्वर्ग और पृथ्वी तो एक ही महतत्त्वके दो छोर हैं। स्वधर्मकी हमारी कल्पना स्वराज्यकी कल्पनासे जरा भी विरोधी नहीं है। विना स्वधर्मके स्वराज्य जिसतरह घृणास्पट और तुच्छ है, उसीतरह बिना रवराज्यके स्वधर्म दुबला और अपाहिज है! इसीसे, ऐहिक अभ्युदयस्वराज्य-की यह तलबार अपने पारलौकिक निःश्रेयसकी चिंता करनेवाले स्वधर्मकी रक्षाके लिए हमेशा नंगी ही रहनी चाहिए। पौर्वात्य मन का यह रुख इतिहासम कई प्रसगो में प्रतीत होता है। पूरबमे सभी क्रातियों धर्मक्राति का रूप ले लेती है, यहाँ तककि, पूरत्रमे धर्मसे दूर रहनेवाली किसी काति होने का खयालतक नहीं किया जाता-इसका कारण धर्म इस विशाल अर्थवाची शब्द में मिल जाता है। भारतीय इतिहास में पायी जानेवाली 'स्वधर्म और स्वराज्य' की यह जुड़वा सिद्धान्तपद्धति १८५७ की क्रातिमभी पूर्णरूपसे निखर पडी है। दिल्लीकी बादशाह की घोषणा का उल्लेख हम पहले करही चुके हैं। आगे चल कर एक समय पर, जब अंग्रेजोंने दिल्लीको घेर लिया था और युद्ध बिलकुल अपनी.टोंचपर पहुंच चुका था, तब बादशाहने सभी भारतीयों को सबोधित कर और एक घोषणा की थी; वह थी-- " परमात्माने सपत्ति, सत्ता और स्वदेश क्यो दिया है। इसलिए नहीं कि. केवल हम अपने (स्वार्थक) लिए उनका उपभोग करें; बल्कि स्पष्ट है कि हम उनका उपयोग धर्मकी रक्षा के लिए ही करें " किन्तु इस.