पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३९४

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अग्निमलय ] ३५० [तीसरा खड अससे छिन कर आअटराम को सौंपा गया है। अग्रेजों का दण्ड इतना कडा होता है । विजयी होने पर भी कानपुर पहुंचने में नील को देरी हुी तब असे सेनापतित्व से वचित कर वह पद हैवलॉक को दे दिया गया । और हॅवलॉक के अबतक विजयी होनेपर भी अमे लखन पहुंचने में अवश्यंभावी देरी होते ही अस जैसे चतुर सेनानी को अस के पद से हटाकर सर जेम्स आअटराम को अत्तका पद दिया गया । अिस समाचार से हॅक्लॉक को बडा धक्का पहुंचा। जिस विजय की कामना से वह दिन रात प्राणपन से चेष्टा कर रहा था, लखनझू मुक्त करने का वह सौभाग्य ठीक मौकेपर दूसरे किसी को प्राप्त होगा। अिस अपमान से असके मनपर बडी चोट पही। तब भी, मॅलेसन लिखता है-"हमारे अंग्रेज देशबंधुओं में यह बडा श्रेष्ठ गुण है कि चाहे जितनी तीव्र निराशा और अपमान सहना पडे, सार्वजनिक हित की रक्षा के कर्तव्य में इंच भी बाधा नहीं पड़ने देते । कर्तव्य का सदा भान और निष्ठा ही अग्रेज की विशेषता है। अपने सभी व्यक्तिगत भावों की वह बलि चढाता है! अस के अपमान का शल्य चाहे जितनी तीव्रतासे असके मन में सालता रहे. स्वदेश के विचार को अस के अतःकरण में सर्वप्रथम स्थान होता है ! अपने देश की सेवा करने के तरीकों के बारे में असके अपने विचार भले हो, राष्ट्र के प्रातिनिधिरूप बनी शासन-संस्था यदि अस से भिन्न विचार रखे तो शासनसस्था की सभी आज्ञा का हृदय से पालन कर राष्ट्र को सुयश माप्त करा देने के काम में अपना सारा बल अंग्रेज लगा देता है। नील भी असी तरह चला और अब हवलॉकने वही किया। अपनी पदच्युति का भान होते हुझे भी, पइले अंक सेना का सर्वेसर्वा सेनापति होते हु जिस फुर्ती, साहस तथा निष्ठा से वह काम करता था, ठीक अन्हीं गुणों के साथ अब भी अपने नियुक्त काम में व्यस्त दीख पडता।"* जो यश दूसरे को भूषित करनेवाला था, असी जश की सिद्धता के लिओ जब हॅवलॉक दिन रात बेक करता था, तब १६ सितंबर को सर

  • मलेसनकृत ओिडयन म्यूटिनी खण्ड ३, पृ. ३४६..