पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३८२

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अग्निपलय] ३३८ [ तीसरा खंड - जनता की चुनी शासन-पद्धति का अपयोग, अराजकसे उत्पन्न विपत्तियों से देशकी रक्षा करने के हेतु, चालू कर देना चाहिये । और अक बार वह ठीक तरह से चालू हो जाय, फिर तो हर ओक को अस सत्ता के आगे परम आदर के साथ सिर झुकानाही चाहिये । नये नियुक्त अधिकारियों की आज्ञा करें। पर पूरी तरह अमल हो और अनुशासन भी अच्छी तरह रहे। सर्वसाधारण के मंगलको ही लक्ष्य कर क अपनी व्यक्तिगत सनक को सयमित करे । शासनपद्धति में कुछ भी सुधार चाहो, तो बहुमत के निर्णय ही से किया जाय । थोडे में, बाहर क्रांति और अंदर वैध राज्यपद्धति; बाहर गोलसाल, कुप्रबन्ध, अंदर पूरा सहयोग, सुप्रबंध; वाहर तलवार अंदर न्याय-यही नियम बना लिया जाय। संसार की सभी राज्य-पद्धतियों के ये सिद्धान्त-क्रांति की सफलता के लिओ अवश्य जिन को ध्यान में रखना पड़ता है—विप्लक के प्रथमार्ध में ठीक ठीक निभाये गये थे। क्रांति का पारंभ होते ही दिली, लखन, कानपूर तथा अन्य स्थानों में यथाशक्ति फुर्ती से शासन को दृढ बनाने पर विशेष ध्यान दिया गया था। अिन महत्त्वपूर्ण स्थानों में अपना ही अल्लू सीधा करने के हेतु या अपना रोब तथा प्रतिष्ठा बढाने के लिओ अक भी डॉगी महात्मा आगे न आया। भिन्न भिन्न गद्दियों पर मात्र सच्चे वारिसों और जनप्रिय राजवंशियों को बिठाया गया । अिन नरेशों ने अपना अल्लू सीधा कर अपनी सत्ता का क्षेत्र बढाने की अभिलाषा, क्रांति से लाभ अठाकर, भूल कर भी न दिखलायी । यहाँ तक कि, राष्ट्रीय स्वाधीन मार्ग में स्वयं रुकावट हो जाने की सम्भावना हो तो अपना राज्याधिकार तज देने के लिओ सिद्ध होने की बात बहादुरशाहने कही, जिसका प्रत्यक्ष प्रगाण, अस समय के अपलब्ध असल खत-पत्रों में मिल जाता है । जिस तरह १८५७ में रचनात्मक राज. शासन का प्रथम भाग सराहनीय अँची सतह पर रखा जाने से संपूर्ण यशस्वी ही ठहरा । किन्तु सारी क्रांति में महत्त्वपूर्ण बहुसंख्य वर्ग साधारण सिपाहियों का ही होने से, परायी सत्ता की शृंखलामें मेक बार तोड देनेपर, वे किसी का भी बंधन नहीं चाहते थे, जिस से अिस आडे समय में अनुशासन में ढीलापन