पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/३८१

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अध्याय ५ वा ] ३३७ [लखन की मर्यादा भी नही जंचती । और जिस तरह क्रांति का रूप पलट कर अराजक मच जाता है । सद्गुण दुर्गण बन जाते हैं, जो वास्तव में जनता के मगल करनेवाला होने के बदले विनाश का कारण बन जाता है। व्यक्तिओं, समाजों तथा राज्यों का सहार जितना परायी सत्ता से होता है, अतनाही अराजक (अनाकी ) से होता है। अभी तरह दुष्ट नियमो-निबंधों से अन का जितना नाश होता है, ठीक अतनाही किसी प्रकार के नियम-मर्यादाओं के न हाने से या होनेपर अनका पालन न करने से भी होता है। किसी भी क्रांति में अिस समाजशास्त्र के सिद्धान्त की ओर ध्यान न दिया जाय, तो साधारणतया अस क्राति का स्वयं सर्वनाश होता है। जिस तरह बीमारी से मुक्त होने के अद्देश्य से कोसी व्यक्ति शराब पीने लगता है वह रोग-मुक्त होनेपर भी नशा करना नहीं छोडता, ठीक असी तरह दुष्ट राजशासन से छुटकारा पाने के लिओ दुष्ट नियमों को तोडने की आदत पड जानेपर, अद्देश्य पूरा होने के बाद भी वही आदत जारी रहती है और लोगों को वह निठल्ले और शासनदेषी बनाती है। अन्याय, अत्याचार को नष्ट करनेवाली क्राति सचमुच पवित्र है । किन्तु अक तरह के अत्याचार-अन्याय को जड से अखाडते हुआ यदि असी तरह के अत्याचार-अन्याय का पौधा, किसी क्राति में, लगाया जाता हो, तो तुरन्त वह काति पापी और अपवित्र बन जाती है; और असी पातक के गर्भ में बढनेवाले असख्य विषबीजों से अस क्रांति का सबनाश हो जाता है। अिसी से, परदास्य के रोग से मुक्त होने के लिओ क्रांति की मदिरा पीना चाहे, तो पहले से वह सावधान रहे कि असे घातकी आदत न बनने दे। परायी सत्ता के द्वेष के साथ साथ, अपनी देशी-सत्ता को सिर आँखॉपर मानने की शिक्षा भी अपने मन को प्रारंभ से देनी चाहिये । विदेशी जुल्मी सत्ता का उच्छेद करते समय, हर प्रयत्न से, आपसी झगडों को टालने की सावधानी रखनी चाहिये । परायी सत्ता को मटियामेट करते ही असी क्षण से आम २२