पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२९४

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प्रस्फोट] २५२ -[द्वितीय खंड न होगा, किन्तु हमारे देशबंधुओंपर हम कभी शस न उठायेंगे।" अंग्रेजोंके मुँहपर यह चपत पडी और वे निराश हो गये। हिंदी नरेश अंग्रेजोसे वफादार थे, किन्तु उनकी प्रजा और सेना 'अपने देववधुओंपर हथियार उठानेको कभी सिद्ध न थी।' इससे, केवल गोरी सेना लेकर ब्रिगेडियर पॉलव्हिल आगरेपर चढ आनेवाले विद्रोहियोंका सामना करने चल पडा। दोनोंकी मुठभेड सास्सिह को हुई। दिनभर लडाई चालू रही। किन्तु क्रांतिकारियोंके सामने पैर जमाना दूभर होनेसे अंग्रेज हट गये। विजयसे उत्तेजित क्रातिकारियोंने भेडियेके समान अग्रेजोंका पीछा किया। जब गोरी सेना आगरे पहुँची, तो उनके पीटपर विजवकी पुकार करते हुए क्रातिकारी भी दौड आये। वह सुअवसर, जिसकी ताकमें जनता थी, आज उनके हाथ लगा। यह ६ जुलाईका दिन था। पुलिसके नेतृत्वमे सारा आगरा नगर उठा ! पुलीसके अधिकारी कातिकारियोंसे अच्छीतरह सधे हुए थे। हिंदु-मुसलमान धर्माचायाँका एक बड़ा जुलूस निकला। आगे कोटवाल तथा अन्य पुलीस अधिकारी थे। 'स्वधर्म, और स्वराज्यकी जय हो' के नारे लगाये गये और यह घोपित किया गया, कि अत्रते अंग्रेजी सत्ताका अन्त होकर दिल्लीके सम्राटकी सत्ता चालू हो चुकी है। इस तरह आगराके स्वतत्र हो जानेपर पराजय के अपमान से लज्जित, भावीकी चिंतासे त्रस्त कोलव्हिनने किलेका आसरा लिया। उसे यही कुरेद पडी थी कि शिदे क्या करवट लेता है ? शिंदे क्रांतिकारियोंमे मिला केवल इतने समाचारहीसे कोलव्हिन शरण जाता; किन्तु शिदेकी 'वफादारी' के पत्रोंसे और उसकी सहायतासे यह स्पष्ट था कि शिंदे अंग्रेजोंके विरुद्ध खडा न होगा. और मालम होता है इसीसे आगरेपर अंग्रेजोंका झण्डा टिक सका। किन्तु उसे बनाए रखनेकी चिताके बोझसे, हिंदुस्थानकी अंग्रेजी सत्ताको अत्यत दुःखित टशामे छोडकर ९ सितंबर १८५७ को कोलव्हिन मर गया। __ग्वालियरकी जनता तथा सैनिकोंमे जो कातिकारी मनोगति दीख पडी थी, उसके दर्शन इदौरमे भी भयानक रूपमें हुए। मऊकी अंग्रेजी छावनीसे होलकरकी सेनाने गुप्त सबंध प्रस्थापित कर लिया था और तय हुआ था कि दोनों मिलकर बलवा करें। १ जुलाईको इंदौर दरबारके