पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२२

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मेरी जान में श्री. सावरकरजी की तरह १८५७ के स्वातंत्र्य-समर का विचार, मात्र श्री. जयचन्द्रजी विद्यालंकारने किया है चाहे वह कितनी ही संक्षेप में क्यों न हो! अब भी जैसे अितिहासज्ञ--जो अपने को वैसा मानते हैं पड़े हैं जो १८५७ के प्रसंग को मात्र 'गदर' ही मानने का हठ करते हैं। अिसी से मैं जयचन्द्रजी का उल्लेख कर चुका हूँ।

१५ अगस्त १९४७ से अंग्रेज भारतवर्ष के गले पर दबाया हुआ बूटवाला पैर हटाकर, अब दाहिनी रान पर रख कर खड़ा है। हम इसे स्वतंत्रता मानते हैं. हॉ, पहले हम न बोल सकते थे, न उठ पाते थे। अब हम बैठ सकते हैं, बोल सकते है। एक महत्त्वपूर्ण बात हम कभी न भूलें: अंग्रेजों का विश्वास कभी न करना चाहिये। संसार भर में किसी अंग्रेज का विश्वास करना हो, तो केवल दो स्थानों में होनेवाले का-एक चित्र में दिखायी देनेवाला, दूसरा कब्र में दफनाया हुआ! तीसरे किसी अंग्रेज का विश्वास करने से सदाही हानि होगी। अिस का प्रत्यक्ष अदाहरण आज पूर्व पंजाब की सीमापर अपस्थित है। अिस बात के की अदाहरण इस ग्रथ में पाये जायँगे।

इस ग्रंथ में कहीं भी रोमन अक्षरों का अकारण अपयोग नहीं किया है। अंग्रेजी भाषा भी देवनागरी में लिखी जानी चाहिये। अिस सिद्धान्त को मैंने निबाहा है। अन्त में, सदय पाठकों से यही प्रार्थना है, कि जिस ग्रंथ से जो भी आनंद मिले उसका जश श्री सावरकरजी को देकर, सब दोषों का अधिकारी मुझे बनावें और भारतीय स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हर युवक को अिस का पठन करने का अनुरोध करें।

'वदेमातरम्'

७८७ ब, सदाशिव पेठ सज्जनों का सेवक

पुणे २ ग० र० वैशंपायन

भाद्रपद २००३ ।