पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/२११

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AA m अध्याय ७ वॉ काशी और प्रयाग कलकत्तेसे ४५० मीलोपर परमपावन भागीरथीके तटपर अपने ऐतिहासिक वैभवसे पूर्ण काशीकी पुरातन पुण्यनगरी बसी हुई है। पुण्यसलिला गगामैय्याके किनारे बसी हुई सभी नगरियोंमें काशी सचमुच सम्राजीके समान सर्वश्रेष्ठ लगती है। गगाकिनारेसे दृष्टिपथमे आनेवाले एकसे एक ऊँचे भव्य प्रासाद, गगनमें दमकते हुए मदिरोंके ऊँचे ऊँचे सुवर्ण कलश, गवैसे गगनको छूने जानेवाली धनी वृक्षराजी, मदिर मदिरसे निनादित अनगिनत घटोंकी एक सम्मिलित प्रचड ध्वनि और इन सबसे बढकर सुदर बाबा विश्वनाथका परमपावन भव्य मदिर-काशी नगरीकी अपूर्व,गोमा देखतेही बनती है। इस नगरीमे, सुख-विलासके लिए छलो, पूजाप्रार्थनाके लिए भक्तो, ध्यानधारणाके लिए योगी-मुनियो, तथा मुक्तिसुखके लिए परमहसों का तांता सदाही लगा रहता है। इस तरह हर कोई इस पुण्यनगरीमें अपने मनोरथोको पूरा कर लेते है। क्यो कि, एहिक सुख-भोगोसे आकण्ठ तप्त होनेसे जिन्हें अरुचि हुई हों उनके लिए यह नगरी सात्विक आरामकुटीके समान शान्त मालम होती है; जहाँ जिनकी आशा आकाक्षाएँ, ससारके दुष्ट पातकियोंके तीव्र द्वेष या छलपूर्ण असूयासे भम हई हों. उन अभागे जनोको काशी नगरी तथा गगाके अमृततुल्य शीतल तुषार स्वर्गसुखका अधिराज्य अर्पण करते है। सचमुच, अंग्रेजोको धन्यवाद देने चाहिए कि, १८५७ में भी इस स्वगतुल्य शातिनगरीमें अपनी बची हई कष्टमय आयुको बितानेके लिए आनेवाले अभागोंकी कमी न रही। दिल्ली के राजाप्रसादो तथा भव्य भवना