पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१५

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प्रथम संस्करण में ग्रंथकर्ता की भूमिका

अब पचास वर्ष बीत चुके है, परिस्थिति बदल चुकी है, दोनो दलों के प्रमुख अभिनेता काल के गाल में छिप चुके है, सो; १८५७ का युद्ध अब प्रचलित राजनैतिक क्षेत्र की मर्यादा लॉघ चुका है, जिससे उसे 'अितिहास' की कक्षामें रखना योग्य होगा।

जिस दृष्टिसे जब मैं अितिहासकार की आँखों से उस ज्ञान-गर्भ तथा भव्य महादृश्य की खोज करने बैठा तो १८५७ के उस 'बलवे। में स्वातंत्र्य समर की जगमगाहट देख मैं दंग रह गया। मृत वीरों की आत्मा हुतात्मता के तेजोवलय में रची हुी थीं; भस्मराशी में तेजस्वी प्रेरणा के स्फुलिंग दीख पडे। इतिहास के एक अत्यंत उपेक्षित कोने में गहरे दबे पडे उस दृश्य को पाकर, मेरे देशबंधु भी अत्यंत मधुर निराशा का अनुभव करेंगे, जब कि, मै खोज की किरणों में उसके दर्शन कराउगा। मैंने वही चेष्टा की और आज मैं भारतीय पाठको के सामने, यह चौंका देनेवाला किन्तु प्रामाणिक, १८५७ के महत्त्वपूर्ण बनावों का, चित्र रखने में समर्थ हुआ हूँ।

जिस राष्ट्र को अपने अतीत का सच्चा भान न हो, असके लिए कोई भविष्य नहीं है। अिसी के साथ यह भी सत्य है, कि हर राष्ट्र को केवल गर्वभरे अतीत की क्षमता ही नहीं विकसित करनी चाहिये, भविष्य को सुधारने के लिए असका उपयोग करने के ज्ञान की भी योग्यता होनी चाहिये। राष्ट्र को अपने देश के अितिहास का दास नहीं, स्वामी रहना चाहिये। क्योंकि, अतीत में किये हुए कुछ कामों का फिर से उसी तरहं दुहराना महत्त्वपूर्ण होनेपर भी निरी मूर्खता है। शिवाजी महाराज के समय मुसलमानों के प्रति द्वेषभाव न्यायपूर्ण और आवश्यक था, किन्तु केवल अिस बूतेपर, कि हमारे