पृष्ठ:१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर.pdf/१४१

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मनको कैसे दबोच बैठा है!" अंग्रेजी शासनका बल तो भारतमे भेदियोंकी हस्ती ही है। और इसीसे, अंबालेमें एक भी विष्वासघाती न मिला तो सेनापती अंसनके हाथ पाँव फूल गये। मनहीमन इन सैनिकोंके गुप्त सगठनपर आश्चर्य करते हुए उनका बदला लेनेकी उघेडबुनमे वह व्यस्त रह।

इस तरह, यह अग्निकाण्ड भारतमें स्थान स्थानपर चाल हो जानेके सवाद आने लगे। हाँ, अंतिम अग्निप्रलयकी दाव भडकनेके पेहले इस तरह इन चिनगारियोका इधर उधर उडना कमप्राप्तही था। नाना-साहबके लखनऊ आनेसे कुछ ऊधम मच गया ही था । यहाँ भी भेदियों तथा विदेशी गोरोके घर आगके मुखमें जा रहे थे। जिन्होने समूचा देश पराधीनताकी श्रखलासे जकड लिया था, उन अंग्रेजोंको छटक जानेका किंचित भी अवसर न देकर यहीं ठढे कर दिया जाए, इस उद्देशसे भारत भरमें, एक ही साथ दावानलको भडकानेके लिये ३१ मईका दिन निश्चित हुआ था। लखनऊकी गुप्त-सभाने क्रातीदलके कार्यक्रमको यध्यपि अनुमति दी थी, फिर भी वहाँके सैनिक अपने उत्साहको कहाँतक रोके रखेंगे? इसपर भी गुप्त बैठकोंमे होनेवाले जोशीले भाषण सुनकर और भिन्न भिन्न स्थानपर होनेवाले आगके उपद्रवोके संवाद सुनकर उनको और ही तेहा आ जाता! ३ मईकी बात है, भडकीले चार सिपाही लफ्टनेट मेशँमके खेमेमें घुस गये और कहा,'देखो, तुम्हारे साथ हमारा व्यक्तिगत कोई झगडा नहीं है, किन्तु जबकी तुम फिरंगी हो, तुम्हारा खातमा होगा" जमदूत जैसे विक्राल सैनिकोको देख लेफ्टनट मेशॉमकी घीग्घी बँध गयी और वह गिडगिडाकर कहने लगा,"तुम्हारी इच्छाही हो तो तुम मुझे एक क्षणमे खतम कर सकते हो। किन्तु भाइ, मुझ जैसे मामूली आदमीको मारकर तुम्हें क्या मिलेगा? मैं मारा जाऊँगा तो ओर कोइ मेरी जगहपर तैनात होगा। मतलब, दोष मुझ अकेलेका नहीं,शासनपद्धति का है; तो फिर मुझपर दया क्यों नहीं करते?'। उसके इस तरह कहनेसे सिपाहियोंका क्रोध