पसीना आ गया। शारदा भी चौंक उठी। यह क्या कोई रहस्य है? इतने ही में शशिकला सूखे मुँह से कातर होकर बोली―"अच्छा सरला! अब क्या तुम एक संभ्रांत घर की महिला का सर्वनाश किया चाहती हो? तुम्हारे हृदय में भी बदला लेने की इच्छा है?" बात कहते-कहते शशिकला की आँखें भर आईं। वह दोनो हाथों से सिर पकड़कर वहीं बैठ गई। उसका सिर चकरा रहा था।
अब सरला का तेज और ज्योति न-जाने कहाँ विलीन हो गई। वह फिर सरला हो गई। उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसने शशिकला का हाथ पकड़कर कहा―"इतना क्षुब्ध होने की क्या ज़रूरत है। मेरा तो आज तक किसी ने अपकार नहीं किया, फिर बदला कैसा? मेरा प्रारब्ध-भोग ही प्रबल है। आप सावधान हूजिए, मैं चली।"
शशिकला ने आँखें उठाकर सरला की ओर देखा। उसे देखने में न-जाने कितने विषाद, दुःख, कातरता और अनु- नय-विनय के भाव भरे थे। देखते-ही-देखते उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। सरला से भी न रहा गया। वह उससे लिपट गई। दोनो फूट-फूटकर रोने लगीं। सब लोग स्तब्ध थे। दास, दासी, सुंदरलाल तथा उसके स्वामी सभी वहाँ आ गए थे। सभी चकित थे कि यह बात क्या है।
अंत में कुछ शांत होकर सरला बोली―"मैं चली।"