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हृदय की परख

तो कह, क्या हो गया? यह शशिकलादेवी हैं, कितने दिन बाद मिली हैं। अब क्या हमें लौटना उचित है?"

"तो आप ठहरें, मुझे भेज दें।"

गृहिणी फिर बोली―"सरला! क्या तेरे ही लिये मेरे घर में जगह नहीं है? मैं तुझे देखकर कितनी ख़ुश हुई हूँ, पर हाय! तू मेरे रस में विष घोले देती है। आ चल बेटी!" यह कहकर शशिकला ने फिर उसका हाथ पकड़ लिया।

सरला बोली―"क्षमा करें। मैं क्या रस में विष घोलूँगी। मां तो आपके पास आई ही हैं, फिर मेरे ही जाने से आपको दुःख क्यों होगा? मैं तो बिना ही बुलाए अचानक आ गई हूँ।"

गृहिणी ने करुण स्वर से कहा―"तो क्या बेटी! तेरे ही लिये मेरे घर में जगह नहीं है?"

सरला ने कहा―"नहीं।" अब तक सरला बैठी थी, अब उठ खड़ी हुई। उसकी आँखों की सरलता और मुख की मधुरता न जाने कहाँ लोप हो गई। उसके मुख पर एक ऐसा तेज आ विराजा कि दोनो रमणियाँ देखती रह गईं। मुँह से बात न निकली।

सरला शशिकला के मुँह पर दृष्टि गड़ाकर बोली―"जो इस घर में मेरे लिये जगह होती, तो क्या मैं मेहमान की तरह आपसे स्वागत कराती?"

सरला के होंठ फड़क उठे। शशिकला काँप उठी। उसे