न पढ़ा गया। उसने आतुर होकर नीचे लेखक का नाम देखना चाहा। वहाँ लिखा था―'सत्य'
सरल लौंक पड़ी―"सत्य कौन? क्या यह वही सत्य है? क्या सत्य ऐसा है?"
आज दो वर्ष पीछे सरला को सत्य की याद आई है। उसने सरला के लिये कब-कब और क्या-क्या किया था; वह कैसा शांत, स्वच्छ और विश्वासमय प्रेम था, सब स्मरण हो आया। पर हाय! उसे ठुकराकर, उसका सब सुख लेकर मैं चली आई हूँ। तो क्या सत्य ने मुझे ही लक्ष्य करके ये करुण शब्द लिखे हैं? यह दारुण विषाद की ध्वनि क्या मेरे ही कारण अलापी है? एक निष्ठुर, नीरस और भाव-रहित हृदय का वर्णन करते-करते जो अनेकों बार उसकी लेखनी रो उठी है, सो क्या मेरे ही अत्याचार से?
सरला ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसने देखा, उसी पीपल के पेड़ के नीचे सत्य निर्निमेष दृष्टि से सरला को निहार रहा है। किसी अतीत चिंता के मारे उसके नेत्रों के नीचे कालौंस छा गई है, माथा सिकुड़ गया है, मुख पर विषाद की छाया विराजमान है। उसे देखते-ही-देखते सरला का हृदय भर आया। उससे न रहा गया। सरला रो उठी। बहुत देर तक रोई। कुछ देर बाद सरला ने मुँह उठाकर देखा, सामने कोई नहीं था। उसने एक पत्र लिखा―
"सत्य! तुम्हें सरला की अब भी याद आती है? तुम उसे