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हृदय की परख

युवक मुग्ध हो गया। उसने खड़े होकर आदर-पूर्वक सरला का पवित्र हाथ चूम लिया।

सरला ने धीरे से अपना हाथ खींच लिया। तब सब कुछ कह चुकी थी। आग बुझ चुकी थी। अब उसने लौर्य से कहा―"बैठिए, आज असमय में कैसे पधारे?"

नवयुवक ने जेब से एक समाचार-पत्र निकालकर कहा― "यह देखिए, आज छ महीने पीछे आपके लेख 'हृदय' की समालोचना छपी है। कैसी मर्मभेदिनी है। कैसी अनोखी छान-बीन है। इसे पढ़कर मुझसे न रहा गया। आपको दिखाने के लिये चला आया हूँ।"

सरला ने तनिक विस्मय से कहा―"समालोच ना? देखूँ।"

"देखिए। बड़ी देर हुई―मुझे आज्ञा दीजिए।" यह कहकर युवक चला गया।

सरला देखने लगी। उस लेख का शीर्षक था―'हृदय की परख।' लेख बहुत लंबा न था, पर जो कुछ था, बहुत था। उसके शब्दों में न-जाने क्या था, उनसे सरला का हृदय छिलता चला जाता था। उसे पढ़ते-पढ़ते सरला के हृदय में एक मार्मिक वेदना होने लगी। उसने देखा, इस प्रतिभाशाली लेखक के सामने मेरे विचार डगमगा गए हैं। मेरे गुरु के विचार भी तुच्छ देख पढ़ते हैं। उस लेख में न-जाने क्या जादू था। सरला उसे पढ़ते-पढ़ते लज्जित-सी हो गई। उसका शरीर अपराधी की भाँति काँपने लगा। समचा लेख उससे