समर्पण 20 परम विदुषी श्रीमती कलावतीदेवी की स्वर्गस्थ पवित्र आत्मा के लिये बहन, इस पुस्तक को पढ़कर तुम बहुत रोई थीं । एक दिन भोजन भी नहीं किया था। तुमने कहा था कि इसे जल्दी बहुत सुंदर छपवाकर मुझे देना, मैं नित्य पढ़ा करूंगी। पर तुम इसके छपने तक ठहरी नहीं । देवबाला सरला से तुम्हें बड़ा स्नेह और सहानुभूति थी। तुम उसे भगवान् की गोद में जाते देख हुलसकर उसके साथ ही चल खड़ी हुई। अच्छा, अपनी इस परम आदर और प्यार की वस्तु को लेती जाओ, जल्दी में इसे यहीं भूल गई थीं; यह तुम्हें समर्पित है। बहन, तुम्हारी एक मूर्ति इस पुस्तक में रखने की बड़ी लालसा थी, पर अपने नेत्रों की तृप्ति के लिये हमारे पास तुम्हारी कोई प्रति-मूर्ति नहीं है। हमारे हृदय को छोड़कर वह अब इस संसार में कहीं किसी भाव नहीं मिल सकती। जो वस्तु कहीं नहीं मिल सकती, उसकी अभिलाषा त्याग देना ही अच्छा है । अस्तु । तुम हमारे हृदयों में ही सदा वास करो, हमारी दुलारी कला! तुम्हारा त्यक्त ज्येष्ठ भ्राता तुम्हारे आदर के शब्दों में- 'वैद्यजी' "Vaydjee" .
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