पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/८७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८५
बारहवाँ परिच्छेद

सरला चौंककर खड़ी हो गई। फिर उसने कहा―"तुच्छ दास?" युवक ने अधीरता से कहा―"और क्या?" इतना कहकर वह खड़ा हो गया। सरला ने हाथ पकड़कर कहा― "बैठ जाओ, मेरी बात का बुरा न मानना। मैं पगली-सी हो रही हूँ।" युवक का बोल न निकला। वह चकित होकर उसे देखता ही रह गया। उसे ऐसा बोध हुआ, मानो यह सरला वह सरला नहीं है। उसके मुख पर न सरलता है, न वह भोलापन; किंतु एक विचित्र गंभीर, महत्त्वमयी प्रतिभा निकल रही है। युवक ने कहा―"शांत होओ, अनुचित न हो, तो इस उद्वेग का कारण कह डालिए। आपकी ऐसी मूर्ति तो कभी नहीं देखी थी।"

सरला उसी तरंग में बोली―"कैसी मूर्ति? क्या मेरी मूर्ति में कोई नवीनता है?" फिर कुछ शांत होकर बोली― "जाने दीजिए, बैठ जाइए। आज कुसमय में कैसे दर्शन दिए?"

"क्षमा करें, आप क्षुभित हैं, ऐसा मालूम होता तो―" बात काटकर सरला ने कहा―"नहीं-नहीं, आपके आने से प्राण शीतल हो गए। क्या जाने आपको विधाता ही ने भेज दिया, या आप वही हैं।" यह कहकर सरला गौर से उसका मुँह देखने लगी।

युवक ने विनीत भाव से कहा―"सरलादेवी! क्यों अपने हृदय को दग्ध कर रही हो? इससे मुझे भी कष्ट हो रहा