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ग्यारहवाँ परिच्छेद

करके मैंने उन सब पुस्तकों को पढ़ा है। पर आपको ये सब बातें कैसे ज्ञात हुईं?"

"वह मेरे ही पूर्वजों की भूमि है। वह महापुरुष हमारे ही पूर्व-पुरुष हैं। मेरे पिता के संतान नहीं थी। मेरी माता ने ७ वर्ष तक उस समाधि को बुहारकर उन महात्मा के प्रति मानता की, तब मेरा जन्म हुआ। इसी से मेरा नाम भी उन्हीं के नाम पर रक्खा गया। समाधि के उत्तर ओर कुछ खँडहर और पीपल का वृक्ष है।"

"हाँ-हाँ, वही मेरी पाठशाला है। उसी पेड़ के नीचे बैठे- बैठे मैंने वे अमूल्य ग्रंथ देख डाले हैं।"

"उसी पेड़ के नीचे? कैसा चमत्कार है! वही पेड़ तो मेरी भी प्रारंभिक पाठशाला है। मैं प्रथम वहीं बैठा-बैठा चित्र बनाया करता था। उस स्थान को १५ वर्ष से नहीं देखा।" सरला को भी कौतुक हो रहा था। वह बोली―"मेरा सारा बाल-काल उसी पीपल के वृक्ष की उपासना में व्यतीत हुआ है।"

"किंतु आप वहाँ कहाँ थीं? मैंने तो आपको कभी वहाँ देखा नहीं।"

"आप जब वहाँ के हैं, तो बूढ़े लोकनाथ को तो अवश्य जानते होंगे!"

"हाँ-हाँ―काका लोकनाथ? फिर?"

"वही मेरे पिता थे!"