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ग्यारहवाँ परिच्छेद

सरला ने अपनी दूध-सी स्वच्छ आँखों को युवक के मुख पर गड़ा दिया!

युवक ने कुछ उत्तेजित होकर कहा―"आप तो इस लोक की देवी नहीं है। आपके मन और आत्मा की बात दूर रही, आपके दर्शनों में भी शांति मिलती है। आपका स्वरूप, आपकी वाणी, आपका भाव, आपका हृदय, कोई भी इस लोक का प्रतीत नहीं होता। क्या जानें, यह अनूठा रत्न विधाता ने भूल कर इस पापमयी पृथ्वी पर क्यों भेज दिया है! फिर जो इसकी सेवा करे, उसके सौभाग्य की क्या बात है!"

"किंतु यह आपकी कल्पना है। मैं तो एक तुच्छ मानवी हूँ। मुझमें यदि कुछ है, तो उसे मेरे गरुवर्य की महिमा समझनी चाहिए।"

"वह कौन महापुरुष हैं? देवी! उनके पुण्य नाम से क्या मैं अपने कान पवित्र कर सकूँगा?"

सरला ने धीरे से कहा―"विद्याधर।"

युवक चौंक पड़ा। उसने जो सरला के मुख पर दृष्टि डाली, तो वह अत्यंत मधुर और दीप्तिमान् हो रहा था।

सरला ने भी देखा, युवक चकित हो गया है। उसने कहा―"आपका भी वही शुभ नाम है, और आप भी मेरे गुरु हैं।" सरला का मुख और भी मधुर और प्रफुल्ल हो उठा, किंतु अबकी बार उससे उधर देखा न जायगा।