पृष्ठ:हृदय की परख.djvu/७५

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ग्यारहवाँ परिच्छेद

सरला के लेख अब भी समय-समय पर निकलते थे, पर अब उनमें एक और ही छटा थी। अब सरला की आँख में ऐसा सुर्मा लग गया था कि वह पारलौकिक सुख को प्रत्यक्ष यहीं देखने लगी थी।

सायंकाल के चार बजने का समय है। सरला अपनी ड्राइंग कापी लिए बैठी है। उसकी पेंसिल धीरे-धीरे चल रही है। पर उसका मन वहाँ बिलकुल नहीं है। वारंवार वह द्वार की ओर देख रही है। विद्याधर ने घर में प्रवेश किया। सरला शांत भाव से खड़ी हो गई।

युवक ने कहा―"इतने शिष्टाचार की आवश्यकता ही क्या है, देवी!"

सरला ने युवक की छड़ी को निहारते हुए कहा―"आप गुरु जो हैं!"

"गुरु? राम-राम सरला! गुरु तो आप हैं।"

सरला ने सिकुड़कर कहा―"आप ऐसी बात क्यों कहते हैं? यह तो सुनने में भी अच्छी नहीं लगती। आप―"

युवक उतावली से बोला―"मैं ठीक ही कहता हूँ। कलकत्ते में जिस समय मैंने आपका 'हृदय' देखा, तभी से मैं आपका