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दसवाँ परिच्छेद

उस विचार में शांति और तृप्ति को छोड़कर विषाद का नाम भी नहीं था, न व्याकुलता थी, और न आशा थी। पर अब दिनोदिन विषाद उसके विचारों में रमता जाता था। एक बार सरला ने सोचा, इस युवक का आना ही बंद कर दूँ; पर मस्तिष्क में पूरा विचार बैठा भी न था कि वह व्याकुल हो गई। पहले ऐसा होता था कि जब प्रभात का मनोरम काल होता, या मध्याह्न का प्रखर प्रकाश होता, अथवा संध्या का समय उपस्थित होता, तो शारदा साक्षात् विषाद की मूर्ति हो जाती थी। उस समय सरला हर तरह से बातचीत करके उसे सुखी करती थी। उसकी बातों का विषय और ढंग ऐसा निराला होता था कि शारदा उसे बड़े चाव से सुनती थी। पर कुछ दिनों से अब वैसी बात नहीं है। शारदा के पास चुपचाप बैठकर सरला स्वयं विषाद की मूर्ति बन जाती है।

यह भाव सदा छिपा तो रहता नहीं। एक दिन शारदा ने पूछा―"क्यों सरला! तुझे क्या कोई दुःख है, जो तू इतनी उदास रहती है? क्या मुझे भी तू मन की बात न बत- लावेगी?"

सरला ने कहा―"मा! जाने क्या बात है, जी में बेचैनी रहती है।"

"कैसी बेचैनी? कोई रोग हो, तो बता।"

"नहीं।"