दसवाँ परिच्छेद
ईश्वर की कैसी अनोखी माया है! किसी वस्तु का वास्त- विक स्वरूप क्या है, सो कुछ समझ में ही नहीं आता। जगत् में कुछ भी स्थिर नहीं है, इसी अनुभव से ऋषिगण संसार पर विश्वास नहीं करते थे। सरला के हृदय में हम आज अद्भुत परिवर्तन पाते हैं। उसका ऐसा परिष्कृत मस्तिष्क, ऐसा विस्तृत हृदय, ऐसा अटल निश्चय ऐसे वेग से उस युवक की ओर बहा जा रहा है कि स्वयं सरला भी घबरा उठी है। यह युवक नित्य आकर ज्यों-ज्यों काग़ज़ पर सरला का हाथ पक्का कराता है, त्यों-त्यों उसका हृदय कच्चा होता चला जा रहा है। यदि एक दिन भी वह नहीं आता है, तो उसके प्राण व्याकुल हो जाते हैं। वह दिन उससे काटे नहीं कटता। एकांत में बैठकर सरला सोचा करती है― "आख़िर इस पतन का कारण क्या है?" जब युवक आता है, तो सरला न तो उससे विशेष बातें ही करती है, और न उसकी ओर देखती ही है। पर उसके चले जाने पर इस मूर्खता के लिये पछताती है। सरला कभी खाली न रहती थी। बचपन से ही उसे सदा सोचते-विचारते रहने का अभ्यास था। वह सदा ही किसी विचार में डूबी रहती थी। किंतु