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नवाँ परिच्छेद

कोई लक्षंण नहीं पाए जाते। रूप, रंग, आकार, वेश- भूषा आदि कुछ भी तो शिक्षिता-जैसा नहीं है। प्रथम तो उन्हें संदेह हुआ, पर फिर उन्हें निश्चय हो गया। अगले दिन जब सारे पत्रों में यह निकला कि सरला एक १९ वर्ष की ग्रामीण बालिका है, उसे न किसी कॉलेज की डिग्री है, न कोई मान-पत्र, तब लोग अचरज करने लगे। किंतु कितने ही उसे स्वर्गीया देवी समझकर उसके दर्शन को लालायित हो उठे। जो पुरुष उससे मिलने आता, उससे वह ऐसे घराऊपन से मिलती कि वह यहाँ बाहरी सभ्यता और तड़क-भड़क को भूल ही जाता; सरला की छाप उसके हृदय पर लग ही जाती। एक दिन प्रातःकाल सरला कुछ जल-पान करके बैठी हुई पुस्तक पढ़ रही थी। इतने में दासी ने ख़बर दी कि कोई सज्जन मिलने आए हैं। सरला पुस्तक रखकर उनके स्वागत को उठ खड़ी हुई। यह एक अधेड़ अवस्था के पुरुष थे। इनके साथ ही एक और युवक भी था। दोनो के बैठने पर एक पुरुष ने कहा―"जब से मेरे पत्र पर आपकी कृपा हुई है, तब से वह चौगुना बिकने लगा है। मैं आपका अत्यंत ही कृतज्ञ हूँ। आपने चित्र-विद्या सीखने की अभिलाषा प्रकट की थी, सो उसके लिये यह विद्याधर महाशय हैं। इन्हें मैं ले आया हूँ। श्रीयुत बाबू सुंदरलाल के भी आप दूर के संबंधी हैं। अभी थोड़े ही दिन हुए, कलकत्ते से चित्र-विद्या में पारंगत होकर आप आए