नवा परिच्छेद
सरला ने देखा, बैठे-बैठे कैसे जी लगे। उसने एक लेख लिख डाला। उसका शीर्षक था―हृदय। कलकत्ते के जिस प्रसिद्ध पत्र में वह निकला, उसी मास में उसकी दो हज़ार अतिरिक्त कापियाँ बिक गईं। उसके लेख से सभ्य-जगत् में ऐसी हलचल मच गई कि जहाँ देखो, लोग उसी की चर्चा करने लगे। देश- भर के भिन्न-भिन्न भाषा के पत्रों ने उसका अनुवाद किया। लंबी-लंबी समालोचनाएँ निकलीं। अमेरिका और योरप तक से धन्यवाद और प्रशंसा के पत्र सरला के पास आने लगे। उस लेख में ऐसा अनूठापन था, ऐसी अनोखी युक्तियाँ थीं, ऐसी सरस वाणी थी कि बड़े-बड़े विद्वानों ने उसे दो-दो, तीन- तीन बार पढ़ा।
इसी बीच में उसके 'हमारा धर्म' और 'आत्मविवेचना' नाम के और भी दो लेख निकले। इनका निकलना था कि सारे देश- भर में सरला परिचित हो गई। लोग उसकी तरह-तरह की कल्पना मूर्ति गढ़ने लगे। जगह-जगह से प्रश्न उठने लगे कि सरला कौन है? एक प्रसिद्ध पत्र के संपादक उससे भेंट करने आए। देखा, एक उन्नीस वर्ष की लड़की का नाम सरला है। क्या यही वह विदुषी है? इसमें तो शिक्षिता जैसे