आठवाँ परिच्छेद
सरला घर की तरह यहाँ रहने लगी। शारदा बड़े ही दुलार से उसे रखती हैं। एक दिन चंद्रमा की स्वच्छ चाँदनी में सरला और शारदा में न-जाने क्या-क्या बातें होती रहीं। उनका अभिप्राय यही था कि मनुष्य को कामना-रहित होकर सेवा और प्रेम करना चाहिए। इन बातों में न जाने कैसी मिश्री घुली थी कि शारदा की नींद उचट गई। सरला बातें करते-करते वहीं चाँदनी में थककर सो गई, और शारदा चुपचाप उसका मुख देखकर विचार-सागर में डूबती-उत- राती रहीं। उनके मन में होता था―"यह नन्हा-सा हृदय और ये बातें! संसार में मुझे के किसी में ढाढ़स, तृप्ति, शांति न मिली थी, जो सरला की बातों में मिली है। लालसा मर गई है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मैं ही परम भाग्यवती हूँ। सरला ने ठीक ही तो कहा है कि जो पुष्प विलास के उप- भोग में आते हैं, उनसे तो वे ही अधिक भाग्यवान् होते हैं, जो देवार्चन में उपयुक्त होते हैं। जिसका अंत वियोग और दुःख है, उस सम्मिलन से लाभ क्या? ऐसा संयोग तो हम जहाँ से आए हैं, और अंत में जहाँ हमें अवश्य जाना है, उस मार्ग में काँटे बोना है। ठीक है! ठीक है!" यह सोचकर