उन्होंने चकित होकर कहा-"तो वहाँ तुम्हारा कोई परिचित भी नहीं है?"
"नहीं।"
"तो वहाँ इतने बड़े नगर में तुम अकेली किसके यहाँ जा रही हो, तुम्हारा घर कहाँ है?"
"मेरा घर वसंतपुर में है। संसार में अकेली हूँ । मेरा कोई नहीं है। सुना है-प्रयाग बड़ा नगर है। वहाँ किसी भले घर के बालकों को पढ़ाने-लिखाने की सेवा मिल जायगी,तो उदर-पूर्ति हो जायगी, इसी विचार से वहाँ जा रही हूँ।"यह कहकर सरला सापेक्ष भाव से उन पुरुष की ओर देखने लगी।
उन्होंने पूछा- 'तुम जाति की कौन हो ?"
सरला ने सरलता से कहा-"मनुष्य ।"
"मनुष्य ! मनुष्य तो सभी है।"
"हाँ, मैं भी वही हूँ।"
"किंतु तुम्हारा कुल-गोत्र भी कुछ है ?"
"होगा, उससे मेरा कुछ संपर्क नहीं, और न वैसा कुछ वह आवश्यक है।"
"तुम्हारा धर्म क्या है "
"अनुराग और सेवा।"
वह पुरुष स्तंभित हो गए। उन्होंने देखा, यह कन्या बड़ी ही विचित्र है। इतनी बड़ी तो हो गई, पर कुमारपने की